SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करता है। आत्माका स्वभाव है सुख, आनंद और परम निर्मलता। आत्मा में मलिनता स्वाभाविक नहीं, कर्मों के कारण है। कर्म मुक्ति की प्रक्रिया को समझना-जैन धर्म का साधना मार्ग है। साधना का पथ है। संयम, संवर और तप अर्थात् निर्जरा, इन्हीं दो उपायों से कर्ममुक्ति की साधना संभव है। आस्रव कर्म आने का स्थान, संवर कर्म को रोकनी क्रिया, निर्जरा-पूर्वकृत कर्मों का क्षय करना, बंध से आत्मा और कर्म का संबंध किस प्रकार संश्लिष्ट होता है तथा इन संपूर्ण कर्मों को क्षय कैसे करना तथा मोक्ष प्राप्ति कैसे प्राप्त करना आदि का वर्णन इस प्रकरण में विस्तार पूर्वक प्रस्तुत किया है। - कर्म सिद्धांत की महत्ता का मूल्यांकन इसी से किया जा सकता है कि उसने केवल मानव जाति के ही कर्मों के आस्रव और संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष का विचार नहीं किया अपितु नरक, तिर्यंच और देव आदि पंचेन्द्रिय तथा तीन विकलेंद्रियों तथा एकेन्द्रिय आत्माओं का भी कर्म संबंधी उपयुक्त विचार व्यक्त किया है । कतिपय धर्मों और दर्शनों ने जहाँ केवल मनुष्यगति तथा मनुष्य जाति का उसमें भी उसके कामना मूलक या सामाजिक कर्मों का ही तथा स्वर्ग और नरक का ही विचार किया है। जबकि जैन कर्म सिद्धांत वेत्ताओं ने मनुष्यादि चार गतियों का मनुष्यों के भी बंधक-अबंधक कर्मों का, शुभ-अशुभ कर्मों और उनके परिणामों का तथा कर्मों से सर्वथा मुक्ति से मोक्ष गति का विचार किया है। जैन दर्शन ने संसार की समस्त आत्माओं को निश्चय दृष्टि से परमात्मा सदृश बताया है। इतना ही नहीं बहिरात्मा से परमात्मा बनने के उपाय भी बताये हैं। प्रकरण : ७ उपसंहार और निष्कर्ष प्रस्तुत शोध प्रबंध में जैनधर्म में कर्मसिद्धांत के विषय में किया हुआ समीक्षात्मक विवेचन इस प्रकरण में किया है। उपसंहार में उप याने समीप, नजदीक और संहार याने नाश करना, विध्वंस करना। अर्थात् मुमुक्षु जीवों के दोषों का अत्यंत निकट से संपूर्णत: नाश करना छेदन करना याने उपसंहार हैं। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत ग्रंथरूपी प्रासाद का निर्माण होने के बाद इस दिव्य प्रासाद के शिखर पर उपसंहार रूपी कलश इस प्रकरण में चढ़ाया गया है। कर्म सिद्धांत यह जीवन का विज्ञान है। कर्म सिद्धांत हमारे जीवन की प्रत्येक क्रिया का कारण, उसका फल (प्रतिक्रिया), उसके निवारण का कर्म सिद्धांत यह युक्ति संगत समाधान देता है। मन की उलझी हुई अबूझ गुत्थियों और सृष्टि की विचित्र अलक्षित घटनाओं के जब
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy