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कहते हैं। भगवान महावीर स्वामी ने दशवैकालिक सूत्र के माध्यम से क्रोधादि चारों कषाय संसार रूपी मूल का सिंचन करते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ प्राणियों के जीवन का कितना अनिष्ट करते हैं, यह बताते हुए कहा है कि
क्रोध- प्रीति का नाश करता है। मान- विनय का, नाश करता है। माया (कपट)- मित्रता का नाश करती है।
लोभ- समस्त गुणों का विनाश करने वाला है।११४ कषाय चारित्र मोहनीय कर्म की १६ प्रकृतियाँ
मूलरूप से कषाय के चार भेद हैं और उनकी तीव्रता-मंदता के आधार पर प्रत्येक कषाय के चार भेद होने से कषाय के कुल सोलह भेद प्ररूपित किये गये हैं। कषाय के मूल चार भेद - क्रोध, मान, माया, लोभ। - कषायों के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मंद स्थिति के कारण चार-चार प्रकार होते हैं, जो क्रमश:
अनंतानुबंधी कषाय की (तीव्रतम स्थिति) अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतर स्थिति)
प्रत्याख्यानावरण (तीव्रस्थिति) तथा संज्वलन (मंदस्थिति) होती है। अनंनतानुबंधी कषाय ___ जो कषाय अनंत संसार का अनुबंध कराने वाला है, उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं। इस कषाय के प्रभाव से आत्मा अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करती है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है और जीवन पर्यंत रहता है । ११५ सोये हुए साँप की भाँति निमित्त पाकर यह कषाय प्रगट रूप में प्रस्तुत होती है। १) अनंतानुबंधी क्रोध
पर्वत फटने से पड़ी हुई दरार कभी नहीं जुडती, इसी प्रकार यह क्रोध परिश्रम और उपाय करने पर भी शांत नहीं होता है, ऐसा क्रोध एक जिंदगी में नहीं अनेक जन्मों तक चलता है। २) अनंतानुबंधी मान
पाषाण के स्तंभ (खम्भे) के समान है अथवा वज्र स्तंभ के समान है। ऐसा स्तंभ टूट