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________________ 194 दर्शन मोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ१०८ १) सम्यक्त्व मोहनीय, २) मिथ्यात्व मोहनीय, ३) मिश्र मोहनीय। इन तीनों में मिथ्यात्व मोहनीय सर्वघाति है। सम्यक्त्व मोहनीय देशघाति है और मिश्र मोहनीय सर्वघाति है। १) सम्यक्त्व मोहनीय ___ यह कर्म शुद्ध होने के कारण तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व में व्याघात नहीं पहुंचाता परंतु इसके कारण आत्म स्वभाव रूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता और सूक्ष्म पदार्थों के सोचने में शंका हुआ करती है, जिससे सम्यक्त्व में मलिनता आ जाती है। २) मिश्र मोहनीय इसका दूसरा नाम-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व मोहनीय है। जिस कर्म के उदय से जीव को यथार्थ की रुचि या अरुचि न होकर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्र मोहनीय कहते हैं। इसके उदय से जीव को न तो तत्त्वों के प्रति रुचि होती है। और न अतत्त्वों के प्रति अरुचि हो पाती। इस रुचि को खट्टीमिट्ठी वस्तु के स्वाद के समान समझना चाहिए। ३) मिथ्यात्व मोहनीय जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, उसे मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग पर न चलकर उसके प्रतिकूल मार्ग पर चलता है। सन्मार्ग से विमुख रहता है, जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं करता है, अपने हिताहित का विचार करने में असमर्थ रहता है, हित को अहित, अहित को हित समझता है।१०९ जैनागम थोक संग्रह में भी यही बात है। ११० चारित्र मोहनीय कर्म का स्वरूप १) कषाय चारित्र मोहनीय, २) नोकषाय चारित्र मोहनीय१११ प्रज्ञापना में भी यही कही है।११२ १) कषाय चारित्र मोहनीय ___ जो आत्मा के गुणों को कष (नष्ट करे) अथवा कष् का अर्थ है जन्म मरण रूप संसार, उसकी आय, अर्थात् प्राप्ति जिससे हो उसे 'कषाय' कहते हैं।११३ 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में कषाय मोहनीय की परिभाषा देते हुए कहा है 'चारित्र परिणाम कषणात् कषायः' अर्थात् जिसके कारण चारित्र के परिणाम क्षीण होते हों उसे 'कषाय'
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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