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वेदनीय कर्म आत्मा के सुख-दुःख पर असर करता है, जबकि मोहनीय कर्म आत्मा की आनंद सृष्टि को रोक देता है, इसी कारण सांसारिक सुख-दुःख के करंट का पॉवर हाऊस मोहनीय कर्म है। ऐसे मोहवश प्राप्त होने वाले भौतिक सुख के लिए भगवान महावीर ने कहा है 'खणमित्तसुक्खा बहुकाल दुक्खा' क्षणमात्र का सुख चिरकाल तक दु:खों का सर्जन करता है।१०३ रागद्वेषादि विकार मोहनीय कर्म के अंग हैं।
इस बात को स्पष्ट करते हुए 'स्थानांगसूत्र१०४ में लिखा है, जैसे मदिरा पान किया हुआ मनुष्य अपना नियंत्रण खो देता है, मोहनीय कर्म के कारण अपने हिताहित का, अपने कर्तव्य का, सत्य-असत्य का भान भूल जाता है। हिताहित को कदाचित् समझ भी लें, किन्तु इस कर्म के उदय से आचरण नहीं कर पाता। आत्मा को संसार में रचा पचा रखने वाला एवं आत्मा का पौद्गलिक दुनिया के साथ तादाम्य कर देने वाला और अपने आप को बिल्कुल विस्मृत करके पर भाव को स्वभाव जैसा बना देने वाला मोहनीय कर्म ही है। मोहनीय कर्म के दो रूप हैं। श्रद्धा अर्थात् दर्शन रूप और चारित्र अर्थात् प्रवृत्ति रूप। मोहनीय कर्म का विस्तार
मोहनीय कर्म के दो भेद - १) दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ।१०५ उत्तराध्ययनसूत्र१०६ और स्थानांगसूत्र १०७ में भी यही बात आयी है। दर्शन मोहनीय कर्म का स्वरूप
जो वस्तु जिस प्रकार की हो उसका तात्त्विक दृष्टि से यथार्थ मूल्यांकन कर के अथवा हेय, ज्ञेय, उपादेय का विश्लेषण करके उसे वैसा जानना 'दर्शन' कहलाता है। जो कर्म ऐसा परिपूर्ण एवं शुद्ध दर्शन न होने दे वह 'दर्शन मोहनीय' कर्म है। - यहाँ पर ध्यान रखना है कि 'दर्शनावरणीय कर्म' के 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'सामान्य बोध' है जबकि दर्शन-मोहनीय कर्म के 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धा या दृष्टि । दर्शन मोहनीय की प्रबलता के कारण शुद्ध देव, गुरु और धर्म के प्रति रुचि नहीं होती और न उन पर श्रद्धा होती है। चारित्र मोहनीय कर्म का स्वरूप
मोहनीय कर्म का दूसरा भेद चारित्र मोहनीय है। स्वभाव की प्राप्ति या आत्म स्वरूप में रमणता को निश्चय चारित्र कहते हैं और अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति को व्यवहार चारित्र कहते हैं। व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, तप, समिति, गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र की कोटि में हैं। आगमों में मोह और क्षोभ से विहीन समता युक्त परिणाम भाव सम्यक् चारित्र है।