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________________ 183 ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्ष का।६२ दर्शनावरणीय कर्म का निरूपण • यह संसार आत्मा और कर्म के संयोग का फल है। न अकेली आत्मा संसारी हो सकती है और न अकेला कर्म कुछ कर सकता है। कर्म के साथ मिलने से ही आत्मा की संसारी अवस्था होती है। कर्म का मुख्य कार्य आत्मा को संसारी बनाना है। संसार की विभिन्न अवस्थाओं में आत्मा को परिभ्रमण कराने का कार्य कर्म कैसे करता है, इसे समझाने हेतु कर्मों का आठ भागों में वर्गीकरण किया है। ज्ञानावरणीय कर्म के पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म बताया गया है। दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन गुण अर्थात् सामान्य बोध को आवृत करता है।६३ अत: सामान्य बोध को आवृत्त करने वाले कर्म पुद्गल को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।६४ बोध के सामान्य और विशेष दो रूप होते हैं। विशेष बोध को शास्त्रीय भाषा में 'ज्ञान' और सामान्य बोध को 'दर्शन' कहा है, अर्थात् सामान्य रूप से देखना दर्शन है। गोम्मटसार (कर्मकांड)६५ और स्थानांगसूत्र में भी यही बात आयी है। __सामान्य बोध का अर्थ है, पदार्थों की सभी अवस्थाओं का बोध न होकर किसी एक अवस्था का बोध होना। एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं, जैसे सामने घड़ी पडी है तो सर्वप्रथम यह बोध होगा कि यह घड़ी है। उस समय उसके आकार, प्रकार, रंग, निर्माण, स्थान आदि बातों की जानकारी नहीं होती, केवल इतना ही जानना कि यह घड़ी है, इस सामान्य बोध को दर्शन कहते हैं और जब यह बोध विशाल रूप धारण कर ले तो यह बोध दर्शन न होकर ज्ञान कहलाएगा। दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर उसे प्रकट होने से रोकता है या सामान्य बोध पर पर्दा बनकर छा जाता है और पदार्थों की साधारण जानकारी भी नहीं होने देता है। . दर्शनावरणीय कर्म को द्वारपाल की उपमा दी गई है। जिस प्रकार राजा के दर्शन के लिए उत्सुक व्यक्ति को द्वारपाल रोक देता है। उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शन शक्ति पर पर्दा डालकर वस्तु के सामान्य धर्म का दर्शन (बोध) होने से रोक देता है और दर्शन शक्ति को प्रगट नहीं होने देता।६७ ।। ___दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति को कैसे आच्छादित करता है? उसके कौन-कौन से कारण है? इस कर्म के फल भोग (अनुभाव) कैसे होते हैं? आदि बातों का विश्लेषण ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही जानना क्योंकि दोनों ही कर्म ज्ञान को आवृत्त करते है। ज्ञान और दर्शन दोनों आत्मा के गुण हैं। एक विशेष बोध कराता है और एक
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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