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________________ 182 मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान दो प्रमाणों में विभक्त हैं। उनमें पहले दो ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, परोक्ष प्रमाण कहलाते हैं५८ क्योंकि इन दोनों ज्ञान के होने में इन्द्रियों और मन के सहयोग की अपेक्षा होती है और अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ये तीनों ज्ञान मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना ही सिर्फ आत्मा की योग्यता के बल से उत्पन्न होते हैं।५९ तत्त्वार्थसूत्र में६० यही कहा है। यद्यपि अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान आत्मा की शक्ति के द्वारा मूर्त पदार्थों का ज्ञान करते हैं, किन्तु चेतनाशक्ति के अपूर्ण विकास के कारण उनकी समग्र पर्यायों और भावों को जानने में असमर्थ है, इसलिए इन दोनों ज्ञान को 'विकल प्रत्यक्ष' कहते हैं। जब कि केवलज्ञानी संपूर्ण पदार्थों को उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित युगपत् जानते हैं। अत: केवलज्ञान को 'सकल प्रत्यक्ष' कहते हैं। केवलज्ञान में अपूर्णताजन्य कोई भेद प्रभेद नहीं होता है, क्योंकि कोई भी पदार्थ और तज्जन्य पर्याय ऐसे नहीं है जो केवलज्ञान के द्वारा न जाने जाय। ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव सर्वत्र प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि गोचर होता है। पूर्वाचार्यों ने ज्ञानावरणीय कर्मबंध का दुष्प्रभाव बताते हुए कहा है 'जो मूढ़ मति मन, वचन, काया से ज्ञान एवं ज्ञानी की अशातना करते हैं, वे दुर्बुद्धि, मूर्ख, रोगी तथा गूंगे होते हैं तथा ज्ञान की विराधना करने से उनमें आधि-व्याधि उत्पन्न होती है। कुछ विद्यार्थी बार-बार पढ़ते हैं तथा समझने का कठोर परिश्रम करते हैं फिर भी समझ नहीं पाते हैं। बार-बार रहने पर भी उन्हें याद नहीं रहता। पढ़ने बैठे तो उन्हें नींद आती है अथवा मन भटकता है। कुछ लोगों को ज्ञान के प्रति रुचि नहीं होती। ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव को दिग्दर्शित करने वाले जैन जगत् में माष तुष मुनि का उदाहरण प्रसिद्ध है। जिनके ज्ञानावरणीय कर्म का प्रगाढ़ उदय होने के कारण गुरु के द्वारा दिये गये केवल दो शब्द 'मा रुष मा तुष' उन्होंने 'मास तुस' अशुद्ध शब्द रूप में बारह वर्ष तक रहा। मुनि की विशेषता यह थी कि उद्वेग और क्षोभ रहित होकर श्रद्धा एवं तन्मयता के साथ रहते रहे थे। इससे ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त होने लगा और बारह वर्ष पश्चात् उन्हें मास तुस शब्द के अर्थानुसार (माष्) अर्थात् उडद और तुष अर्थात् छिलका, उडद के छिलके के पृथक्त्व की तरह शरीर व आत्मा का भिन्नत्व सिद्ध हो गया। फलत: उन्हें (मुनिको) केवलज्ञान प्रगट हो गया। यह था ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का दुष्प्रभाव और उससे सर्वथा मुक्त होने के पुरुषार्थ का प्रबल एवं सफल प्रभाव ।६१
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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