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________________ 181 सातवें गुणस्थान में होता है, परंतु बाद में छठे गुणस्थान में भी रहता है। इस सृष्टि में जितने भी मनुष्य है उन सभी के मनोगत भावों को मन:पर्याय-ज्ञानी जानता है। जबतक इन्द्रियाँ स्वच्छंदी हैं और कषायों की प्रबलता है, तब तक दूसरों के मनोगत भावों को या विचारों को नहीं जाना जा सकता। मनःपर्यायज्ञान की विशेषता अवधिज्ञान का विषय भी रूपी है और मन:पर्यायज्ञान का विषय भी रूपी है, क्योंकि मन भी पौद्गलिक होने से रूपी है, फिर अवधिज्ञानी मन तथा मन की पर्यायों को क्यों नहीं जान सकता? तो इसका समाधान यह है कि, अवधिज्ञानी मन को तथा उसकी पर्यायों को भी प्रत्यक्ष जान सकता है किन्तु उसमें झलकते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है। • जैसे कि सैनिक दूररहे अपने साथियों को दिन में झण्डियों की विशेष प्रक्रिया द्वारा और रात्रि में प्रकाश की प्रक्रिया द्वारा अपने भावों को समझाते हैं, और उनके भाव समझते हैं, किन्तु अप्रशिक्षित व्यक्ति झण्डियाँ, प्रकाश आदि को देख सकता है और उनकी प्रक्रियाओं को भी देख सकता है, किन्तु उनके द्वारा व्यक्त मनोभावों को नहीं समझ सकता है। अवधिज्ञानी मन तथा मन की पर्यायों को प्रत्यक्ष तो जान सकता है, किन्तु मनोगत द्रव्य, • क्षेत्र, काल और भाव को प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है, जबकि मन:पर्यायज्ञानी जान सकते हैं। यह उनका विशेष विषय है। यदि यह विशेषता न होती तो मन:पर्यायज्ञान को अलग से मानना ही व्यर्थ है।५७ केवलज्ञान . ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियों में केवलज्ञानावरणीय अंतिम उत्तर प्रकृति है। जो शक्ति केवलज्ञान की ज्योति को आवृत्त करती है, उसे केवल ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। केवलज्ञान वह है, जो मन और इन्द्रिय की सहायता के बिना त्रिकालवर्ती समस्त मूर्त-अमूर्त ज्ञेय पदार्थों को एक साथ हस्तकामलवत् (हथेली पर रहे हुए आँवले की भाँति) प्रत्यक्ष जानने की शक्ति रखता है। यह ज्ञान अन्य सभी से विलक्षण, प्रधान, उत्तम और प्रतिपूर्ण है। यह समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जानता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने पर तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों के नि:शेष हो जाने पर केवलज्ञान प्रकट होता है। . इस प्रकार प्रतिदिन उत्साहपूर्वक नया तत्त्वज्ञान प्राप्त करने से, ज्ञान के साधनों का बहुमान करने से और नि:स्वार्थ भाव से ज्ञान की विशेष आराधना करने से ज्ञानावरण कर्म का संपूर्ण क्षय होता है। यही ज्ञानावरणीय कर्म को समझने की प्रक्रिया है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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