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________________ 180 ३) आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने अपने जीवनकाल में १४४४ ग्रंथों की रचना की थी। उस समय लल्लिग श्रावक ने श्रुत साहित्य रचना में पूर्णरूप से सहयोग दिया था। अवधिज्ञानावरणीय कर्म ___ मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा रूपी अर्थात् मूर्त पदार्थ का ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है। अवधि का अर्थ है सीमा या मर्यादा। वह रूपी पदार्थ को ही प्रत्यक्ष करता है, अरूपी को नहीं५४ वह अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा में ही रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है। अवधिज्ञान हजारों माइल दूर रहे हुए सजीव, निर्जीव पदार्थों को या घटनाओं को उसी तरह जान देख लेता है। जिस प्रकार खुली आँखों वाला जानता देखता है। अवधिज्ञान पर कर्मों का आवरण आने से उसे अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अवधिज्ञानावरण कर्म के उदय (प्रभाव) से आत्मा की अतीन्द्रिय ज्ञानक्षमता का अभाव हो जाता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण बताते हुए कर्मग्रंथ में कहा है- आत्मा की अतीन्द्रिय ज्ञानशक्ति का अपलाप करने से उसके प्रति अश्रद्धा रखने से, आत्मा की ज्ञानशक्ति का निरर्थक एवं अनर्थकारी कार्यों में व्यय करने से, आत्म ज्ञानी पुरुषों की अविनय अशातना करने से तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति में रोडा डालने से यह कर्म बंधता है। विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम हेतु के दो उपाय बताये हैं। १) अवेदी बनना अर्थात् मन, वचन, काया से वासना रहित बनना। २) अल्पकषायी बनना अर्थात् कषायों की तीव्रता नहीं रखना। मन:पर्यायज्ञान - इन्द्रियों और मन की अपेक्षा न रखते हुए, मर्यादा लिए हुए, संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना मन:पर्यायज्ञान कहलाता है। संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिंतन, मनन मन से ही करते हैं। मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष जाना जाता है, उसे मन:पर्यायज्ञान कहते हैं।५५ जब मन किसी वस्तु का चिंतन करता है, तब चिंतनीय वस्तु के भेदानुसार चिंतनकार्य में प्रवृत्त मन भी तरह-तरह की आकृतियाँ धारण करता है, वे ही आकृतियाँ मन की पर्याय हैं। मन:पर्यायज्ञानी किसी बाह्य वस्तु को, क्षेत्र को, काल को तथा द्रव्यगत पर्यायों को नहीं जानता, किन्तु जब वे किसी के चिंतन में आ जाते हैं, तब मनोगत भावों को जानते हैं।५६ • मन:पर्यायज्ञान ज्ञान को आच्छादित करनेवाला कर्म मन:पर्याय-ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है। अप्रमादी विशुद्ध संयमी आत्मा ही इस कर्म का क्षय कर सकती है। यह ज्ञान
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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