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का अमृतसार में४० भी यही बात कही है। ___ संक्षेप में, यह दस प्रकार का अनुभाव-फलभोग ज्ञानावरणीय कर्म का बताया है, जो दो प्रकार के निमित्त पाकर उदय में आता है। एक स्वत: निमित्त और दूसरा परत: निमित्त। स्वत:निमित्त का अभिप्राय है निरपेक्ष भाव से अर्थात् बाह्य निमित्त के बिना आत्मा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जानना चाहते हुए भी , जानने योग्य वस्तुओं का ज्ञान नहीं कर पाती, क्योंकि उपार्जित ज्ञान विस्मृत हो जाता है, या उसकी ज्ञान शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं या ज्ञान तिरोहित (लुप्त) हो जाता है। यह ज्ञानावरणीय कर्म का स्वत: (निरेपेक्ष) अनुभाव है।
इसका अभिप्राय है कि सापेक्ष रूप से पुद्गल और पुद्गल परिणाम की अपेक्षा से फल प्राप्त होना। जैसे कोई व्यक्ति किसी को चोट पहुंचाने के लिए उसके मस्तक पर पत्थर, ढेला या लाठी से प्रहार करता है, तो उसकी उपयोग रूप ज्ञान परिणति का घात होता है, या वह मूर्छित हो जाता है। यह पुद्गल की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव या फल भोग समझना चाहिए। ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं
१) मतिज्ञानावरणीय, २) श्रुतज्ञानावरणीय, ३) अवधिज्ञानावरणीय, ४) मन: पर्याय ज्ञानावरणीय,
५) केवलज्ञानावरणीय।४१ उत्तराध्ययनसूत्र,४२ जैन तत्त्वप्रकाश,४३ प्रज्ञापनासूत्र ४ और तत्त्वार्थसूत्र४५ में भी यही बात है।
आत्मा की ज्ञान शक्ति अनंत है, परंतु संसारी जीवों में किसी के आत्मा का ज्ञान अत्यधिक आवृत होता है, तो किसी को कम होता है। जब पूर्ण रूप से ज्ञान का आवरण हट जाता है, तब केवलज्ञान होता है। संसार के प्रत्येक जीव में ज्ञान की न्यूनाधिकता रहती है। मनुष्यों में भी किसी को ज्ञान का आवरण कम, तो किसी को अधिक होता है। इस तारतम्यता के कारण ज्ञान के निश्चित भेद नहीं किये जा सकते, परंतु आगमों में उन सबका सामान्यरूप से वर्गीकरण करके ज्ञान के मुख्य पाँच भेद किये गये हैं।
१) मतिज्ञान, २) श्रुतज्ञान, ३) अवधिज्ञान,
४) मन:पर्यायज्ञान और ५) केवलज्ञान।४६ . स्थानांगसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र४८ में ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का वर्णन आता है।