SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 178 मतिज्ञानावरणीय कर्म ____ मन और इन्द्रियों द्वारा वस्तु का निश्चित बोध होना या वस्तु का मनन करना मतिज्ञान है अर्थात् जो बुद्धिको जड़ एवं कुण्ठित करे, उसे मतिज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। इसका दूसरा नाम अभिनिबोधिक भी है।४९ . जिस आत्मा का मतिज्ञानावरणीय कर्म जितना तीव्र, मंद या मध्यम कोटि का होगा उसका प्रभाव भी तीव्र, मध्यम या मंद होगा। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्यों की बौद्धिक भूमिका मतिज्ञानावरणीय कर्म पर आधारित है। मतिज्ञानावरणीय कर्म का उदय सदाकाल एक समान नहीं होता। बचपन में मूर्ख बालक यौवन में बुद्धिमान देखा जाता है। मतिज्ञानावरणीय कर्म जब मंद हो जाता है, तब बुद्धि के चमत्कार देखने को मिलते हैं। जब मतिज्ञानावरणीय कर्म का उदय मंदतम होता है, तब बीजबुद्धि पदानुसारिणीबुद्धि और कोष्ठबुद्धि का आविर्भाव होता है। बीज की भाँति विविध अर्थ के बोध रूपी महावृक्ष को पैदा करने वाली 'बीजबुद्धि' होती है। गणधरों में बीजबुद्धि होने से वे केवल त्रिपदी (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) सुनकर उसके आधार पर समग्र द्वादशांगी की रचना करते हैं। ५० _ 'पदानुसारिणी' बुद्धिवाले महापुरुष गुरुके मुख से एक सूत्र (पद) सुनते हैं शेष अनेक पद उनकी बुद्धि से स्वयं प्रगट हो जाते हैं। कोठार (गोदाम) में रखे हुए अनाज की भाँति 'कोष्ठबुद्धि' वाले महापुरुष सूत्रार्थ ज्ञान पढ़कर उसे दीर्घकाल तक सुरक्षित रख सकते हैं। बहुत कम मनुष्यों का ऐसा क्षयोपशम होता है, जिन्हें ऐसी बुद्धि प्राप्त हो। जब मतिज्ञानावरणीय कर्म का अति प्रगाढ़ रूप से उदय होता है, तब एकाग्रता निर्णय शक्ति, जानने की क्षमता और स्मरण शक्ति तीव्र नहीं रहती। मतिज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण और निवारण ___मन और पाँच इन्द्रियों द्वारा पदार्थों के प्रति राग, द्वेष, मोह, आसक्ति आदि करने से, इन्द्रियों का दुरुपयोग करने से एवं अशुभ विषयों में मन को प्रवृत्त करने से मतिज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। फक्त वह अज्ञान के घोर अंधकार में भटकता रहता है। . भौतिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक संसार का कार्य हो या आध्यात्मिक 'बुद्धि' सर्वत्र चाहिए। बुद्धि से मनुष्य कार्य में सफलता पाता है और यश पाता है। अभयकुमार, वीरबल या चाणक्य के नाम आज स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं, उसका कारण उनकी 'बुद्धि' है। __ मतिज्ञानावरणीय कर्म के निवारण का उपाय जिस प्रवृत्ति से मतिज्ञानावरणीय कर्म बंध हो ऐसे कार्य से निवृत्त होना।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy