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________________ 176 १) श्रोत्रावरण कानों से सुनने की शक्ति का मंद हो जाना। कम सुनाई देना या बिल्कुल बहरा हो जाना।३७ २) श्रोत्र विज्ञावरण श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान का ह्रास होना या सुना हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाना। सुनने में ध्यान न लगना या सुनकर भी समझ न सकना। ३) नेत्रावरण नेत्ररूप ज्ञानेन्द्रिय शक्ति का आवृत हो जाना। देखने में कम आना या अंधा हो जाना। ४) नेत्रविज्ञावरण - नेत्रेन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का ह्रास होना या नेत्र विज्ञान से वंचित हो जाना। दृश्य देखकर भी समझ न सकना या अनुमान गलत लगाना। ५) घ्राणावरण घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का आवृत होना। सूंघने की शक्ति में कमी आना या बिल्कुल न सूंघ सकना। ६) घ्राणविज्ञावरण नासिका से प्राप्त होने वाली दुर्गंध-सुगंध का ज्ञान नहीं हो पाना। सूंघ कर भी समझ न सकना। ७) रसनावरण रसना से होने वाले ज्ञान का आवृत होना। स्वाद लेने की शक्ति कम होना। ८) रसना विज्ञावरण रसना द्वारा प्राप्त होने वाले स्वाद को समझ न पाना। खट्टा-मधुर, कडुवा-तीखा आदि का ज्ञान न होना। ९) स्पर्शनावरण स्पर्शेन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का आवृत होना अर्थात् स्पर्श न कर सकना। १०) स्पर्श विज्ञावरण स्पर्श का एहसास न कर पाना। गर्म-ठंडा, भारी-हल्का, रूखा-चिकना आदि स्पर्श की अनुभूति न करना।३८ श्री बृहद् जैन-थोक-संग्रह में भी इस बात का उल्लेख है।३९ ज्ञान
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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