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________________ अपने आप फल या तो नीचे गिर जाते हैं या बगीचे के कर्मचारी उसे तोड़ लेते हैं। परंतु यह निश्चित है कि जैसे-जैसे बीज बोये जाते हैं, वैसे-वैसे ही उनके फल कोई जल्दी और कोई देर से मिलते हैं। यदि कोई नीम का बीज बोकर आम के मधुर फल पाना चाहे तो नहीं पा सकता। इसी प्रकार संसार रूपी बगीचे में विविध प्रकार के जीव रूपी माली अपनी अपनी गति-मति अनुसार कर्म बीज बोते रहते हैं। वे पूर्वबद्ध कर्म जब परिपक्व होकर फल देने के अभिमुख होते हैं। तब उन्हें कर्म विज्ञान की भाषा में विपाक कहते हैं। आत्मा के द्वारा किया हुआ अच्छा कर्म अच्छा फल देता है और बुरा कर्म बुरा फल देता है। कर्म का कर्तृव्य आत्मा पर आने से जगत में सामाजिक एवं नैतिक न्याय भी अखंडित चलता है। इस प्रकार जैन दर्शन ने संसार की विचित्रता का, संसार के सुखदुःखका, उन्नति अवनति के कारण कर्मों को मानकर उस कर्म की बागडोर आत्मा के हाथ में रखी है। आत्मा अपने संकल्प, अपनी भावना और धारणा के अनुसार स्वतंत्र है। अपनी स्थिति, परिस्थिति में परिवर्तन ला सकता है। प्रगति कर सकता है। जीवन में परिवर्तन और प्रगति का सिद्धांत ही साधना और तपस्या का मूल्य स्थापित करता है इसलिए जैन धर्म का कर्म सिद्धांत लचीला है, वैज्ञानिक है और आत्मा के आधीन है। लोग कहते हैं जीव कर्म के आधीन है परंतु वह एकांगी दृष्टि है। वास्तव में कर्म जीव के अधीन हैं। कर्म क्रिया है, जो जीव करता है। जीव तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय, भावना, अनुप्रेक्षा द्वारा कर्म का निरोध करता है। कर्म का क्षय करता है। अशुभ कर्म से शुभ और शुद्ध की ओर गतिशील बनता है। प्रकरण : ५ कर्मों की प्रक्रिया इस प्रकरण में कर्म पुद्गल जीव को परतंत्र बनाते हैं, कर्मबंध की उत्पत्ति, जीव कब स्वतंत्र और परतंत्र, जीव के सुख-दुःख कर्माधीन हैं, आत्मा का स्वभाव स्वतंत्र, कर्म शक्तिशाली अनुशास्ता, कर्म को मूर्त रूप न मानने का क्या कारण जैन दार्शनिक ग्रंथों में कर्म की मूर्तत्व सिद्धि, भगवत् गीता में कर्म-विकर्म और अकर्म का स्वरूप, वैदिक ग्रंथों में शुभत्व का आधार आत्मवत् दृष्टि आदि अनेक विषयों का वर्णन किया है। इस प्रकरण में कर्म का सार्वभौम विचार किया है। कर्म कितने शक्तिशाली होते हैं
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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