SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 साम्राज्य, जीव, पुद्गल, कर्मचक्र आदि अनेक विषयों का विश्लेषण प्रस्तुत प्रकरण में किया गया है। मृनुष्य को जन्म, जरा, मरण, आधि-ब्याधि - उपाधि आदि दुःखों से मुक्त होने के लिए कर्म सिद्धांत के ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। इस ज्ञान के बिना मानव दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। ऐसा जैन दर्शन का दृढ विश्वास है । प्राणीमात्र मुक्ति चाहता है । प्राणीमात्र के सारे प्रयत्न दुःख मुक्ति और सुख प्राप्ति के लिए हैं इसलिए कर्मसिद्धांत का ज्ञान प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है । कर्म सिद्धांत का वर्णन प्राचीन आगम ग्रंथों में भी मिलता है। कर्म का विवेचन करने से पहले कर्म किसे कहते हैं यह समझना आवश्यक है। जैन दर्शन, वेद, उपनिषद और भारतीय साहित्य में कर्म के संबंध में गहराई से अनुशीलन परशीलन किया गया है और चिंतन मनन की शुरुवात कर्म शब्द से होती है। "किं कर्म" याने कर्म क्या है यही तत्त्व दर्शन संसार का मूल कारण कर्म है। सभी दर्शनों में अपनी-अपनी दृष्टि से कर्म का निरूपण किया है। सबका कथन यही है कि जीवन में कर्म का स्थान महत्त्वपूर्ण है। आत्मा और कर्म का परस्पर संबंध है। आत्मा को कर्म से अलग करना याने मुक्ति मिलाना है। कर्म प्रवाह को तोडे बिना कोई भी जीवात्मा परमात्मा नहीं बन सकता जैसे आत्मा अनादि काल से है वैसे कर्म भी अनादि काल से है। कर्म की आदि है वैसे उसका अंत भी है। जैनधर्म और कर्मवाद का सूर्य और उसकी किरण के समान घनिष्ठ संबंध है तो भी कर्म तोडने के बाद याने अष्ट कर्म नष्ट करने के बाद आत्मा सिद्धबुद्ध मुक्त हो सकती हैं। प्रकरण : ४ कर्मबंध की व्यवस्था इस प्रकरण में आठ कर्मों का क्रम, कर्म के मुख्य दो विभाग, ज्ञानावरणीय कर्म का निरूपण, दर्शनावरणीय कर्म, उसके भेद प्रभेद, वेदनीय कर्म का विस्तार, मोहनीय कर्म के भेद, • आयुष्य कर्म के प्रकार, नामकर्म का निरूपण, भेद-प्रभेद, गोत्र कर्म और अन्तराय कर्म आदि आठों कर्मों की मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ आदि अनेक विषयों का निरूपण किया है। कर्म सिद्धांत के समग्र स्वरूप पर क्रमश: चिंतन मनन और चर्चा इस प्रकरण में की गई है। 1 एक बगीचे में आम, अंगूर, अनार, चीकू, नींबू, संतरे आदि विविध फलों के पेड़ हैं। उस बगीचे में कई माली रखे हुए हैं। उन्होंने समय समय पर जैसे बीज बोये होंगे, उनके फ भी वैसे ही आते रहते हैं। उन सभी वृक्षों के फल अपने अपने समय पर जब पक जाते हैं, तब
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy