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________________ 174 आत्मा के आठ गुणों को क्रमश: दबाकर आत्मा को विकृत करने के स्वभाव वाले हैं। आत्मा के द्वारा गृहीत कर्म पुद्गल परमाणुओं के स्कंध (समूह) का आठ प्रकृतियों में पृथक्-पृथक् बंध जाने की प्रक्रिया बताते हुए कहा गया है, जैसे आहार रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल परमाणु रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि आदि विभिन्न धातुओं के रूप में परिणमित हो जाते हैं, वैसे ही मन, वचन, काया की क्रिया के योग से आकर्षित कर्म वर्गणाएँ उन-उन वर्गणाओं के स्वभावानुसार, मूल एवं उत्तर प्रकृति के रूप में परिणमित हो जाती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म का निरूपण 'व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र' में भगवान महावीर से गौतम गणधर ने प्रश्न किया, 'भन्ते! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध किस कारण से होता है? इसके उत्तर में भगवान ने कहा, 'गौतम! ज्ञानी की प्रत्यनीकता यानि ज्ञानी पुरुष के साथ शत्रुता रखने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में दोष निकालने से, ज्ञान एवं ज्ञानी का अविनय करने से और उनके प्रति व्यर्थ विसंवाद करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। इसी बात का विशद रूप से विवेचन करने हेतु से यहाँ ज्ञानावरणीय कर्मबंध के छह कारण प्रस्तुत हैं। ज्ञानावरणीय कर्म छह प्रकार से बंधते हैं-२९ १) नाण पडिणियाए ज्ञान तथा ज्ञानी के अवर्णवाद बोले, ज्ञान का अपमान करना, ३० जैनागम स्तोक संग्रह में भी यही कहा है।३१ ज्ञान या विद्या की अशातना या अवज्ञा करना तथा ज्ञान की महत्ता के प्रति विद्रोह करना ज्ञानावरणीय कर्म बंध का प्रथम कारण है। विद्या या ज्ञान तो जीवन का दीपक है। सच्चा ज्ञान परस्पर संघर्ष अथवा विवाद नहीं सिखाता। वह व्यक्ति को विनीत, सरल और समन्वयी बनाता है। कुछ लोग विद्यालय या ज्ञान केंद्र बंद कराते हैं। और ज्ञान केंद्र खोलने का विरोध करते हैं, ऐसे ज्ञान द्रोही ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। २) नाणनिन्हवणियाए ज्ञान देने वाले ज्ञानी के नाम को छिपायें तो ज्ञानावरणीय कर्म बँधता है।३२ विद्या के क्षेत्र में और अध्यात्म जगत् में ज्ञान दाता गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो गुरु ज्ञान की ज्योति देकर अंतर के नेत्र खोलते हैं उन ज्ञानदाता गुरु के नाम का गोपन करना महापाप है। इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म बँधता है। ३) नाण अंतरायण ज्ञान प्राप्त करने में अंतराय (बाधा) डाले तो ज्ञानावरणीय कर्म बाँधे ।३३ कुछ व्यक्तियों की बौद्धिक संकीर्णता इतनी अधिक होती है, कि वे दूसरों की प्रगति और अभिवृद्ध को
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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