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________________ 173 ४) मोहनीय कर्म यह कर्म मदिरा के समान है।१९ आत्मा का चौथा गुण स्वभाव-रमणता रूप अनंत चारित्र है। आत्मा में केवल अपने स्वभाव में रमण करने का गुण है, किन्तु मोहनीय कर्म द्वारा यह गुण विकृत हो गया है, जिससे आत्मा भौतिक वस्तुएँ प्राप्त करने में उसे सुरक्षित रखने में अहंकार, ममकार से ग्रस्त होकर राग-द्वेष और कषाय में व्यस्त रहती है। अत: वह स्वभाव रमणता से कोसों दूर हो जाती है। यह मोहनीय कर्म प्रतिकूल परिस्थिति में व्यक्ति को भयभीत, चिंतित और विचलित करके चारित्र में स्खलित व कुण्ठित कर देता है। ५) आयुष्य कर्म यह कर्म राजा की बेडी के समान जो समय हुये बिना छूट नहीं सके।२० आत्मा का पाँचवाँ गुण अक्षय स्थिति या अविनाशित्व है। इस गुण के कारण आत्मा का न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु है फिर भी आयु कर्म की वजह से आत्माको जन्म-मरण करना पडता है। कर्मग्रंथ में आयु कर्म को कारागृह की उपमा दी है।२१ ६) नाम कर्म२२ ___ यह कर्म चितारा (पेंटर) समान है, जो विविध प्रकार के रूप बनाता है। कर्मग्रंथ में भी यही कहा है। २३ आत्मा का छठा गुण अरूपित्व है। इस गुण के कारण आत्मा में रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है, फिर भी आत्मा शरीरधारी होने से उसमें कृष्ण, श्वेत आदि वर्ण मनुष्य देव आदि गति एवं यश-अपयश, सुस्वर-दुःस्वर इत्यादि जो विकार दिखाई देते हैं, वे नामकर्म के कारण हैं। ७) गोत्र कर्म यह कर्म कुंभार के चक्र समान है, जो मिट्टी के पिंड को घुमाता है।२४ कर्मग्रंथ२५ और जैनतत्त्व प्रकाश२६ में भी यही बात कही है। आत्मा का सातवाँ गुण अगुरुलघुत्व है। इस गुण के कारण आत्मा न उँच है, न नीच है, फिर भी हम देखते हैं अमुक व्यक्ति उँच कुल में और कुछ व्यक्ति नीच कुल में जन्म लेते हैं। उँच और नीच कुल का जो व्यवहार होता है वह गोत्र कर्म के कारण है।२७ ८) अंतराय कर्म ___ यह कर्म राजा के भंडारी (खजाना) के समान है।२८ आत्मा का आठवाँ गुण अनंतवीर्य है। इस गुण के कारण आत्मा अतुलनीय शक्तिमान होते हुए भी उसे अतुलनीय शक्ति का अनुभव नहीं होता, क्योंकि अंतराय कर्म उस शक्ति को दबा देता है। अंतराय कर्म की इस प्रतिरोधक प्रकृति या शक्ति के कारण व्यक्ति स्खलित हो जाता है। इस प्रकार के आठ कर्म
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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