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________________ 172 घातिकर्म के चार प्रकार हैं- १) ज्ञानवरणीय कर्म, २) दर्शनावरणीय कर्म ३) मोहनीय कर्म, ४) अंतराय कर्म। अघातिकर्म - जो कर्म उदय में आते हैं, किन्तु आत्मा के ज्ञानादिक मूलगुणों का घात नहीं करते, उन्हें 'अघातिकर्म' कहते हैं। ये अघातिकर्म आत्मा के मुख्य गुणों को हानि नहीं पहुँचाते, फिर भी चोर के साथ रहनेवाला साहुकार भी चोर गिना जाता है। अघातिकर्म की प्रकृति घातिकर्मों के साथ वेदना में आती है।१० अघातिकर्म के चार प्रकार - १) वेदनीय कर्म, २) आयुष्य कर्म, ३) नाम कर्म, ४) गोत्र कर्म। घातिकर्मों का क्षय होने के बाद अघातिकर्म लंबे समय तक टिकते नहीं हैं। उस भव का आयुष्य पूर्ण होने के बाद शेष कर्म भी क्षय हो जाते हैं। और जीव सर्वथा कर्म से रहित होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है।११ तत्त्वार्थसूत्र औरजैनदर्शन-स्वरूप और विश्लेषण में भी यही बात बताई है।१३ कर्मों के लक्षण १) ज्ञानावरणीय कर्म यह कर्म सूर्य को ढाँकने वाले बादल के समान है।१४ आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत्त करने वाला या उसे दबाने वाला ज्ञानावरणीय कर्म है। इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की यह प्रकृति ज्ञान को आच्छादित करने की है, जो आत्मा के अनंतज्ञान में बाधा डालती है।१५ २) दर्शनावरणीय कर्म यह कर्म राजा के समीप पहुँचाने में द्वारपाल के समान है।१६ कर्म की दूसरी प्रकृति सुषुप्तिकारक है। इस कर्म प्रकृति का स्वभाव दर्शन शक्ति की जागृति पर आवरण डालता है। ऐसे स्वभाव वाला कर्म दर्शनावरणीय कर्म है। यह आत्मा की अनंत दर्शन की अभिव्यक्ति में बाधा डालता है। ३) वेदनीय कर्म यह कर्म साता वेदनीय मधु लगी हुई तलवार की धार के समान जिसे चाटने से तो मीठी मालूम होवे, परंतु जीभ कट जाए।१७ असाता वेदनीय अफीम लगी हुई खड्ग समान है। आत्मा का तीसरा गुण अनंत अव्याबाध-सुख है। इस गुण के कारण आत्मा में सहज स्वाभाविक अनंत सुख रहा है, फिर भी सांसारिक आत्माएँ आत्मसुख से वंचित हैं। संसार में जो यत्किंचित् सुख प्राप्त होता है, वह भी भौतिक वस्तुओं द्वारा होता है। इसमें वेदनीय कर्म की प्रकृति कारण है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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