SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलकर्म प्रकृतियों का अपने स्वभावानुसार उचित क्रम रखा गया है । २ कर्मप्रकृति और तत्वार्थ में भी यही बात कही है। कर्म कार्मण वर्गणा के पुद्गल मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के कारण आत्मा के साथ बंधते हैं, उसे 'कर्म' कहते हैं । ५ कर्म विज्ञान - वेत्ताओं के अनुसार स्वभाव की अपेक्षा से कर्मप्रकृति की रचना होती है । प्रकृति दो प्रकार की है, मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति, द्रष्टी कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ १) ज्ञानावरणीय कर्म, ४) मोहनीय कर्म, ७) गोत्र कर्म, प्रज्ञापना सूत्र में भी यही बात बताई है। " कुल २) दर्शनावरणीय कर्म, ५) आयुष्यकर्म, ८) अंतराय कर्म ६ उत्तर प्रकृतियाँ १४८ या १५८ मानी गई हैं - १) ज्ञानवरणीय कर्म की २) दर्शनावरणीय कर्म की ३) वेदनीय कर्म की ४) मोहनीय कर्म की ५) आयुष्य कर्म की ६) नाम कर्म की ७) गोत्र कर्म की ८) अंतराय कर्म की कर्म के मुख्य दो विभाग 171 ५ ९ २ २८ ४ १०३ २ ५ । वे इस प्रकार हैं - १५८ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ ३) वेदनीय कर्म, ६) नाम कर्म, आत्मा के स्वगुणों का घात करने वाली चारों घातिकर्मों की कुल ४७ प्रकृतियाँ हैं । ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, मोहनीय कर्म की २८ और अंतराय कर्म की ५ कुल ४७ प्रकृतियाँ होती हैं । ९ १) घातिकर्म, २) अघातिकर्म । घातिकर्म- ये कर्म उदय में आते ही आत्मा के ज्ञानादिक मूलगुणों का घात करते हैं, उसे -'घातीकर्म' कहते हैं ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy