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चतुर्थ प्रकरण कर्म का विराट स्वरूप कर्मबंध की व्यवस्था
अष्टकर्मों का क्रम
कर्म की आठ मूल प्रकृतियों का ऐसा क्रम क्यों है? इस क्रम का आधार क्या है? इसका समाधान यह है कि, जैसे रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार का क्रम विश्व के सभी खगोल वेत्ताओं द्वारा मान्य है, क्योंकि उसके पीछे आधारपूर्ण अनुभूत हेतु है, इसी प्रकार भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार चैत्र के बाद वैशाख और वैशाख के बाद ज्येष्ठ इस प्रकार बारह महिनों के क्रम के निर्धारण के पीछे भी एक हेतु है। छह ऋतुओं का क्रम भी विचारपूर्वक निर्धारित है। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के बाद दर्शनावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म के बाद वेदनीय कर्म, वेदनीय कर्म के बाद मोहनीय कर्म, मोहनीय कर्म के बाद आयुष्य कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अंतरायकर्म यह अष्टविध कर्म की प्रकृतियों के अनुसार क्रम रखने के पीछे भी आधार पूर्ण हेतु है।?
आत्मा के समस्त गुणों में ज्ञान प्रमुख है। आत्मा और ज्ञान का तादात्म्य संबंध है। आत्मा की पहचान उसके ज्ञान गुण के द्वारा कराई जाती है, इसलिए ज्ञान का अवरोध करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म को सर्वप्रथम रखा है। आत्मा के दर्शन गुणों को आवृत करने वाला होने से ज्ञान के पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म को रखा गया। ये दोनों कर्म अपना फल दिखाने के लिए सांसारिक सुख-दुःख को वेदन कराने के हेतु बनते हैं, इसलिए दर्शनावरणीय कर्म के बाद वेदनीय कर्म को रखा है।
सुख-दुःख का वेदन कषाय या राग-द्वेषादि होने पर होता है। कषाय या राग-द्वेषादि मोहनीय कर्म के अंग हैं, इसलिए वेदनीय कर्म के बाद मोहनीय कर्म का स्थान है। मोहनीय कर्म से संत्रस्त जीव अनेक प्रकार के आरंभ-समारंभ करता है, जिससे वह नरक एवं तिर्यंच का आयुष्य बाँधता है। इस कारण मोहनीय कर्म के बाद आयुष्य कर्म को रखा है। आयुष्य कर्म गति, जाति, शरीर आदि के बिना नहीं भोगा जा सकता। अत: आयुष्य कर्म के बाद नाम कर्म रखा गया है। नाम कर्म का उदय होने पर उच्च, नीच गोत्र का उदय अवश्य होता है, इस दृष्टि से नाम के बाद गोत्रकर्म को स्थान दिया गया है। ऊँच, नीच गोत्र के उदय होने पर क्रमश: दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य आदि शक्तियाँ न्यूनाधिक रूप से बाधित एवं कुण्ठित होती हैं, इसलिए गोत्र कर्म के बाद अन्तराय कर्म को स्थान दिया गया है। आठों ही