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________________ - 160 पुद्गल का कर्म रूप में परिणमन कैसे? जीव के रागादि परिणामों के निमित्त से पुद्गल का कर्मरूप में परिणमन कैसे हो जाता है? इसे समझने के लिए केशवसिंह ने क्रिया कोष में कहा है- कोई व्यक्ति सूर्य के सन्मुख दर्पण रखकर उस दर्पण के आगे रुई रख देता है, तो सूर्य और दर्पण का तेज मिलकर अग्नि प्रकट हो जाती है, वह रुई उससे जल जाती है, न तो अकेली रुई में ही अग्नि है, न ही दर्पण में कहीं अग्नि है। सूर्य और दर्पण के साथ रुई का संयोग मिलने से नि:संदेह अग्नि पैदा हो जाती है। इसी प्रकार जीव के साथ उसके रागादि परिणामों के संयोग से आत्मा में स्थित पुद्गलों का कर्मरूप में परिणमन हो जाता है।१६१ इसलिए कर्म केवल संस्कार रूप ही न होकर पुद्गल रूप भी हैं। एक वस्तु भूत पदार्थ है; रागद्वेष परिणाम युक्त जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह घुलमिल जाता है, जैसे दूध में पानी। वह पदार्थ है तो भौतिक-पौद्गलिक, किंतु उसका कर्म नाम१६२ इसलिए रूढ़ हो गया है कि, जीव के कर्म अर्थात् क्रिया के कारण से आकृष्ट होकर जीव के साथ बंध जाता है, चिपक जाता है। आशय यह है कि, जहाँ अन्य दर्शन रागद्वेष मोहादि से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी अदृष्ट धर्माधर्म, अपूर्व, कर्माशय, क्लेश आदि के माध्यम से संस्कार को स्थाई मानते हैं, वहाँ जैन दर्शन का मन्तव्य है कि, कर्म का इस संस्कार रूप के सिवाय भी एक और रूप है। पुद्गलरूप रागद्वेषाविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ आत्मा में एक प्रकार का द्रव्य-पुद्गल आता है जो उसके रागद्वेष परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाता है। कालान्तर में यही (कर्म) पुद्गल द्रव्य जीव को शुभाशुभ फल देता है।१६३ जीव के रागादि परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है; जैसे मेघ के अवलंबन से सूर्य की किरणों का इन्द्र धनुषादिरूप परिणमन हो जाता है, इसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय (वैभाविक) भावों से परिणमनशील जीवन के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त मात्र हो जाता है। वस्तुत: जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्मरूप में परिणमन स्वत: हो जाता है। १६४ कर्म पुद्गलों के कर्मरूप में परिणमन की प्रक्रिया के संबंध में जैनदर्शन का कथन है कि इस लोक में ६ द्रव्य माने गये हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल। हम अपने चारों ओर चर्म-चक्षु से जो कुछ देखते हैं, वह सब पुद्गल द्रव्य है। यह पुद्गल द्रव्य २३ प्रकार की वर्गणाओं में विभक्त है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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