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________________ 161 उन वर्गणाओं में एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त लोक में व्याप्त है। यह कार्मण वर्गणा ही रागादि ग्रस्त जीवों के कर्मों का निमित्त पाकर कर्मरूप में परिणत हो जाती है। १६५ प्रवचनसार में इस तथ्य को उजागर किया है- जब राग-द्वेष युक्त आत्मा शुभाशुभ कार्यों में प्रवृत्त होती है, तब उसमें ज्ञानावरणीयादि रूप से कर्मरज प्रविष्ट होती है।१६६ परिणामों से कर्म और कर्म से परिणाम का चक्र निष्कर्ष यह है कि जो कर्मबद्ध जीव जन्ममरणादि रूप संसार चक्र में पडा है उसने रागद्वेषादि रूप परिणाम अवश्य होता है परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म, जन्म से शरीर और इन्द्रियों की प्राप्ति, इन्द्रियों से विषय ग्रहण तथा विषय ग्रहण से रागद्वेषरूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसार चक्र में पडे हुए जीव के परिणामों से कर्म और कर्म से परिणाम होते रहते हैं।१६७ जीव पुद्गल कर्मचक्र पहले क्रिया-प्रतिक्रिया के नियमानुसार कर्मबद्ध जीव (आत्मा) के रागादि परिणामजन्य संस्कार के रूप में कर्म रहते हैं, फिर आत्मा में स्थित प्राचीन कर्मों के साथ ही नये कर्म बंधन की प्राप्ति होती रहती है। इस प्रकार परंपरा से कदाचित् कर्मबद्ध मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मद्रव्य का संबंध है। संसारी जीव और कर्म के इस अनादि संबंध की जीव पुद्गल कर्मचक्र के नाम से अभिहित किया गया है। अभिप्राय यह है कि, अन्य दर्शन जहाँ जीव की प्रवृत्ति (क्रिया) तज्जन्य संस्कार को ही कर्म कहकर रुक गये, वही जैनदर्शन कर्मबद्ध संसारी जीव को कथंचित् मूर्त मानकर पुद्गल द्रव्य को और उसके निमित्त से होने वाले रागद्वेष रूप भावों को भी कर्म कहता है।१६८ जीव मन, वचन, काया द्वारा कुछ न कुछ करता है। यह सभी उसकी क्रिया या कर्म है। इसे भावकर्म कहते हैं। ये दो प्रकार के कर्म तो सभी को मान्य हैं, परंतु इस प्रकार के भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ (कर्म) पुद्गल स्कंध जीव के अनेक प्रदेशों में प्रविष्ट हो जाते हैं, उसके साथ बंध जाते हैं। यह बात केवल जैन दर्शन ही बताता है। ये सूक्ष्म पुद्गल स्कंध अजीवकर्म या द्रव्यकर्म कहलाते हैं। ये रूप रसादि धारक मूर्तिक होते हैं। जीव जैसेजैसे कर्म करता है उसके स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बंधते हैं। - अत: सिद्ध है कि, कर्म पुद्गलरूप भी है। जिनके प्रभाव से जीव के अनादि गुण तिरोहित हो जाते हैं। वे सूक्ष्म होने के कारण ये चर्मचक्षुओं से दृष्ट नहीं हैं।१६९
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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