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________________ 159 विशेषता इतनी है कि चेतना प्रवृत्ति की भाँति यह सीधा भावात्मक न होकर परमाणुओं से निमित्त होने के कारण द्रव्यात्मक है। इसलिए द्रव्यकर्म नाम सार्थक है। श्री जिनेन्द्रवर्णी के शब्दों में चेतन की कर्म प्रवृत्ति से कार्मण शरीर पर संस्कार अंकित होते हैं। और कुछ काल के बाद उस पर अंकित संस्कार जागृत होते हैं। उन जागृत संस्कारों की प्रेरणा से जीव पुन: कर्मों से प्रवृत्त होता है, उस प्रवृत्ति से पुन: कार्मण शरीर पर संस्कार अंकित होते हैं। कुछ काल पश्चात् अंकित हुए वे संस्कार पुन: जागृत होते हैं और उन जागृत संस्कारों की प्रेरणा से जीव पुन: कर्मों में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार प्रवृत्ति और संस्कारों का यह चक्र प्रवाह रूप से अनादिकाल से चलता आ रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक जीव कर्मों की कार्य कारण परंपरा से सर्वथा विरत नहीं हो जाता।१५७ कार्य या कर्म या अर्थ यहाँ मिट्टी पर पडे हुए पदचिह्न जैसा कुछ नहीं है। न ही चित्तभूमि या कार्मण शरीर मिट्टी के जैसा है, जिस पर चिह्न अंकित हुआ दिखाई दे सके। यह तो समझाने के लिए उपमा दी है। वस्तुत: चित्तभूमि या कार्मण शरीर दोनों ही ज्ञानात्मक या भावात्मक है। इसलिए उस पर पड़ा हुआ चिह्न भी ज्ञानात्मक या भावात्मक जैसा ही कुछ है। उसे शास्त्रीय भाषा में वृत्ति, धारणा या संस्कार कहते हैं। एक प्रकार से स्मृति का च्युत न होना ही धारणा है।१५८ कोइ भी कार्य, क्रिया या प्रवृत्ति क्यों न हो, उसे निरंतर करते रहने पर उसकी आदत हो जाती है। वह आदत या वृत्ति ही संस्कार शब्द का वाचक है। इसे ही जानने के क्षेत्र में धारणा या स्मृत्ति कहते हैं। बोलने या करने के क्षेत्र में या भोगने के क्षेत्र में इसे संस्कार या वृत्ति भी कहते हैं। किसी भी पाठ या मंत्र को बार-बार रटने या दोहराने से वह स्मृति का विषय होकर ज्ञानगत धारणामय संस्कार बन जाता है। निष्कर्ष यह है कि, अच्छा या बुरा कोई भी कार्य करने पर उसका प्रभाव चित्त पर अवश्य पडता है। कार्य समाप्त होने पर भी चित्त पर पडा प्रभाव समाप्त नहीं होता, भले ही पहली बार में उस कार्य की आदत नहीं पडती, परंतु बार-बार करते रहने पर वह आदत पक्की हो जाती है, वही संस्कार रूप बन जाती है।१५९ जैन शास्त्रीय भाषा में प्रत्येक समय में प्राप्त कर्म के सूक्ष्म प्रभाव को आस्रव तथा संस्कार या आदत के रूप में उन्हीं अनेक प्रभावों के घनीभूत हो जाने को हम बंध तत्त्व कह सकते हैं। यह स्पष्ट है कि, जन्म-जरा-मरण रूप संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए प्राणी अविद्या, अज्ञान या मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। वे जो भी क्रिया या प्रवृत्ति करते हैं, वह अज्ञान मूलक होती है। रागद्वेषादिवश उनकी प्रवृत्ति होती है, जो अपने पीछे संस्कार को छोड देती है। इस कारण उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया आत्मा के लिए बंधकारक हो जाती है।१६०
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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