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________________ 158 कर्म है। इस प्रकार कर्म को विभिन्न आस्तिक दर्शनों ने चित्त संस्कार के रूप में माना है। उनका कहना है कि, प्रत्येक शुभ या अशुभ प्रवृत्ति अपना संस्कार छोड जाती है।१५३ समस्त सांसारिक जीव, मन, वचन, काया के द्वारा सोते-जागते, उठते-बैठते, खातेपीते, चलते-फिरते हर समय कुछ न कुछ प्रवृत्ति करते रहते हैं। इन्हीं प्रवृत्तिों के कारण कर्मों का आस्रव और आगे चलकर बंध होता है। इस आस्रव को ही कर्म प्रवृत्ति के संस्कारों का संग्रह कहा जा सकता है।१५४ __ कर्म प्रवृत्ति के संस्कारों को संचित करने के लिए प्रकृति की ओर से यदि कोई साधन न जुटाया जाए तो प्राणी के द्वारा कृत कार्य का क्षण बीतने के साथ ही कर्म भी सर्वथा समाप्त हो जाते और उस प्राणी को किसी प्रकार से बंधन में पड़ने का भय भी नहीं रहता। कदाचित् ऐसा संभव हो जाता तो जगत् का प्रत्येक प्राणी निर्भय और स्वच्छंद होकर मनमानी प्रवृत्ति करता। न्याय-नीति या मर्यादा नाम की कोई भी वस्तु शेष न रहती। एक शक्तिशाली व्यक्ति सारे जगत् को निगलने के लिए तैयार हो जाता। इसलिए प्रकृति का अनुग्रह मानना चाहिए। उसने इच्छापूर्वक कृतकर्मों के समस्त संस्कारों को संचित करने के लिए प्रत्येक प्राणी के न चाहते हुए भी उसके साथ 'कार्मण शरीर' नामक एक ऐसा साधन प्रदान किया है, जिसके द्वारा उस प्राणी के द्वारा किये गये अच्छे या बुरे समस्त कर्मों के संस्कार बिना किसी प्रयत्न के स्वत: उस पर अंकित होते रहते हैं।१५५ स्थूल औदारिक शरीर रहे या न रहे, कार्मण शरीर तो मरते जीते परलोक जाते तथा विविध गतियों और योनियों में रहते हुए हर समय प्राणी के साथ रहता है और उसकी समग्र कार्यवाही का सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। यह जड़ (पुद्गल) होते हुए भी चेतनवत् है। कार्मण शरीर : कार्य भी है कारण भी है चेतना की तमाम प्रवृत्तियों के प्रति यह कार्य भी है और कारण भी है। यह (कार्मण शरीर) कर्म के संस्कारों को ग्रहण कर के स्थित रहता है। इस कारण यह उसका कार्य भी है और यथा समय फलोन्मुख होकर जीव को पुन: उसी प्रकार के कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। चाहते या न चाहते हुए भी प्राणी को उसकी प्रेरणा से कर्म करना पडता है। इस कारण यह उसकी समस्त प्रवृत्तियों का कारण भी है। • यद्यपि चेतन प्रवृत्ति को कर्म कहा जाता है, तथापि उसका कार्य तथा कारण होने से कार्मण शरीर को भी उपचार से 'कर्म' कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने समस्त शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारण होने से कार्मण शरीर को द्रव्यकर्म कहा है।१५६
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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