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वैज्ञानिक प्रकृति के नियम की खोज करता है, वैसे ही कर्म विज्ञान के ज्ञाता द्रष्टा महापुरुषों ने बुद्धि के स्तर पर नहीं, अनुभूति के स्तर पर कर्म के नियम का शोध किया वह नियम है। कार्य कारण का या क्रिया प्रतिक्रिया का नियम। अर्थात् कोई भी कार्य, कारण के बिना नहीं होता। आत्मा का बंधन भी बिना कारण नहीं होता।
भगवान महावीर ने कहा- 'जो नियम है, धर्म है, वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, जिनोपदिष्ट है।' वह नियम इस प्रकार है- जहाँ स्वाभाविक क्रिया नहीं है, वैभाविक क्रिया है, वहाँ आत्मा कर्म से बद्ध होती है।१५० आत्मा की वैभाविक क्रियाएँ कर्म हैं ___ मैं जानता देखता हूँ, यह आत्मा का अपना स्वभाव है, किन्तु 'मैं कहता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ' इत्यादि क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक नहीं हैं। सांयोगिक हैं, वैभाविक हैं। आत्मा और शरीर का यह संयोग प्राण शक्ति को उत्पन्न करने का निमित्त बनता है। प्राण शक्ति अर्थात् शरीरस्थ तैजस शक्ति-ऊर्जा शक्ति। उसी ऊर्जा शक्ति के संचालन से सभी क्रियाएँ होती हैं, जो आत्मा की न होने से अस्वाभाविक हैं, वैभाविक हैं। जहाँ आत्मा जानने देखने की अपनी स्वाभाविक क्रिया से हटकर मन, वचन या काया से संयुक्त होकर कोई भी क्रिया करती है, वहाँ आत्मा के लिए बंधन होता है। वही बंधन मन, वचन और कायारूप कर्म बनते हैं।
प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या कार्य संयोगवश होने के कारण आत्मा के लिए कर्म बंध का कारण है और इसे समझने के लिए क्रिया प्रतिक्रिया के नियम को समझना आवश्यक है। क्रिया प्रतिक्रिया का नियम भी कर्म का नियम है।
प्राणी जो कुछ भी क्रिया या प्रवृत्ति करता है, उसकी प्रतिक्रिया होती है। प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, परंतु उसकी प्रतिक्रिया समाप्त नहीं होती। घंटे पर एक बार किसी ने डंडा मारकर ध्वनि की, वह ध्वनि समाप्त हो गई; परंतु उसकी प्रतिध्वनि समाप्त नहीं हुई, प्रतिध्वनि रह गई। क्रिया छोटी है, प्रतिक्रिया बडी, क्योंकि क्रिया की प्रतिक्रिया अथवा प्रवृत्ति की प्रतिप्रवृत्ति पुन: पुन: आवर्तन होती रहती है।१५१ प्रमाद ही संस्कार रूप कर्म (आस्त्रव) का कारण
भगवान महावीर ने कहा '(प्रवृत्ति में) प्रमाद को कर्म (कर्म का हेतु = आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है।' एक समय की या एक बार की भूल (प्रमाद)१५२ हजार बार आवृत्ति हो सकती है। मनुष्य प्रमादवश प्रवृत्ति करता है, वह चित्तवृत्ति या संस्कार