________________
. 156 जितनी कषाय तीव्र मंद उतना ही कर्म का बंध तीव्र मंद
जैन कर्म विज्ञान मर्मज्ञों का कथन है कि जिस प्रकार रंग रहित कपडा एक रूप ही होता है, उसी प्रकार कषाय युक्त मन, वचन, काया के योग से एक रूप होते हैं। जिस प्रकार रंगे हुए कपडे का रंग कभी हल्का और कभी गहरा होता है, इसी प्रकार योग (व्यवहार) के साथ कषाय का रंग भी कभी तीव्र होता है, कभी मंद। कषाय के रंग की तीव्रता-मंदता के अनुसार ही योग प्रवृत्ति तीव्र-मंद होगी। इसका फलितार्थ यह है कि भावकर्म की जितनी-जितनी तीव्रता मंदता होगी, द्रव्यकर्म का बंध भी उतना-उतना तीव्र मंद होगा। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आत्मा के रागद्वेष आदि भाव (भावकर्म) जितने तीव्र होंगे, पुद्गल कर्म द्रव्यकर्म भी आत्मा के साथ उतने ही तीव्र रूप में बंधेगे। इसके विपरीत यदि आत्मा में रागद्वेष आदि भावकर्म मंदरूप में होगें तो द्रव्यकर्म भी आत्मा के साथ उतने ही मंदरूप में शिथिल बंधेगे।१४४ कर्मवाद में भी यही बात कही है।१४५
सूक्ष्म कर्मरज समग्र लोक में व्याप्त है। द्रव्यकर्म और भावकर्म एक ही आत्मा रूपी सिक्के के दो पहलु हैं। जैन कर्मवेत्ताओं ने द्रव्यकर्म की अपेक्षा भावकर्म को अधिक गंभीर मानकर इससे बचने का एवं शुभ ध्यान, अनुप्रेक्षा, समभाव, क्षमा, तितिक्षा आदि द्वारा भावों को शुद्ध बनाकर कर्मों की तीव्रता को कम करने का निर्देश दिया है।
आचार्य विद्यानंदी ने 'अष्टसहस्री' में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भावकर्म को 'दोष' के रूप में प्रतिपादित किया है। द्रव्य कर्म को 'आवरण' इसलिए कहा गया है कि वह आत्म शक्तियों के प्रकटीकरण को रोकता है।
इसी प्रकार भावकर्म आत्मा की विभावदशा है। इसलिए वह अपने आप में दोष है। जैन दर्शन में कर्म के आवरण और दोष ये दो कार्य बताये गये हैं।१४६
कर्म और आत्मा के प्रदेश का अन्योन्या प्रवेश या एक दूसरे में अनुस्यूत होना या एक क्षेत्रावगाही होना द्रव्यबंध है।१४७ आप्तपरीक्षा१४८ में भी यही बात बताई है। बेडियों का (बाह्य) बंधन द्रव्यबंध है और राग आदि विभावों का बंधन भावबंध है।१४९
निष्कर्ष यह है कि कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों पक्षों को स्वीकार करने पर ही कर्म की सर्वांगीण व्याख्या हो सकती है। कर्म संस्कार रूप भी पुद्गल रूप भी ___कर्म सांसारिक प्राणियों के जीवन में बँधा हुआ एक नियम है। यह प्रत्येक क्रिया के साथ सन्निहित होने वाला सिद्धांत है। जिन प्रत्यक्षदर्शी सर्वज्ञ आप्त पुरुषों ने कर्म की खोज और अनुभूति की उन्होंने कर्म के नियम को खोजा और उनका अनुभव भी किया। जैसे