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________________ 155 में पड़ना पडेगा। फिर तो संसार और मोक्ष में कोई अंतर नहीं रहेगा। संसारी जीवों की तरह मुक्त जीवों में भी कर्म बंधन योग्यता माननी पडेगी। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति कर्म मुक्त होने की साधना में पुरुषार्थ क्यों करेगा? फिर तो कोई भी व्यक्ति अपने पूर्वकृत कर्मों का क्षय करने तथा नये आने वाले कर्मों का निरोध (संवर) करने के लिए उत्साहित नहीं होगा। अत: जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत है कि मुक्त जीवों में द्रव्यकर्म का अभाव होने से भावकर्म भी नहीं होता। संसारी जीवों में पूर्वकृत द्रव्यकर्म के होने से भावकर्म की उत्पत्ति होती है। इसी कारण कर्मबद्ध आत्मा के लिए संसार अनादि है।१३७ आत्म मीमांसा में भी यही बात बताई है।१३८ भावकर्म की उत्पत्ति कैसे? संसारी आत्मा की प्रवृत्ति या क्रिया को भावकर्म कहा गया है परंतु जैन कर्म मर्मज्ञों ने राग और द्वेष इन दोनों को मूल में ही भावकर्म का बीज कहा है। साथ ही भाक्कर्म की उत्पत्ति मोहनीय कर्म से मानी जाती है। अत: जैसे रागद्वेष के साथ (भाव) कर्म का कार्य कारण भाव माना जाता है, वैसे ही तृष्णा और मोह का भी परस्पर कार्य कारण भाव बताया गया है। जैसे तृष्णा से मोह और मोह से तृष्णा पैदा होती है, वैसे ही रागद्वेष से कर्म और कर्म से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। ___आत्मा के क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों रूपी आभ्यंतर परिणामों को भी भावकर्म कहा गया है। मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय ये चारों मोहनीय कर्म के ही अंतर्गत हैं, तथा आत्मा के वैभाविक आंतरिक परिणाम हैं, इसलिए ये भी भावकर्म हैं। १३९ ज्ञान का अमृत१४० में भी यही बात बताई है। योग और कषाय आत्मा की प्रवृत्ति के दो रूप - संसारी आत्मा सदैव सशरीरी होती है, इसलिए उसकी प्रवृत्ति मन, वचन, काया के अवलंबन बिना नहीं हो सकती। मन, वचन, काया से होने वाली प्रवृत्ति को जैन परिभाषा में योग कहा जाता है। संसारी जीवों के कषायरूप या रागद्वेषादि रूप आंतरिक परिणामों का प्रादुर्भाव भी योगों (मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों) से होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो सांसारिक आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति जब राग, द्वेष, मोह या कषाय से रंजित होती है, वह भावकर्म कहलाती है और इनसे द्रव्यकर्म को ग्रहण करके जीव बंधन से बद्ध होती है। इस दृष्टि से आत्मा की प्रवृत्ति एक होते हुए भी अपेक्षा से उसके पृथक्पृथक् दो नाम योगरूप और कषायरूप रखे गये हैं।१४१ समणसुत्त में भी यही बात बताई गई है।१४२ कर्मग्रंथ में यही कहा है।१४३
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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