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सूक्ष्म और बादर कर्म-पुद्गल परमाणु ठसाठस भरे हुए हैं। ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ कर्म पुद्गल परमाणु न हों। लेकिन ये समस्त कर्म पुद्गल परमाणु कर्म नहीं कहलाते। इनकी विशेषता यही है कि, इनमें कर्म बनने की योग्यता है किन्तु पहले मानस में किसी भी तरह का कम्पन्न स्पंदन होता है, अर्थात् मन में प्रशस्त अप्रशस्त पुण्यरूप, पापरूप संकल्प विकल्प पैदा होता है। कर्मयोग्य पुद्गल सर्व लोकव्यापी होने से, जहाँ आत्मा है वहाँ पहले से विद्यमान रहते हैं। जिस क्षेत्र में आत्म प्रदेश हैं, उसी क्षेत्र में रहते हुए कर्मयोग्य पुद्गल कर्मयुक्त जीव के रागद्वेषादि रूप परिणामों के कारण आत्म प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार आत्म प्रदेशों से संबंध, ये कर्म परमाणु जैनदृष्टि से द्रव्यकर्म कहलाते हैं।१३० पंचास्तिकाय ३१ का और जैनदर्शन और आत्मविचार ३२ में भी यही बात है। किसी भी कार्य के लिए निमित्त और उपादान दोनों ही कारण अनिवार्य हैं। कार्य सदैव कारण सापेक्ष होता है। उपादान और निमित्त दोनों ही प्रकार के कारण प्रत्येक कार्य में होते हैं। निमित्त नैमित्तिक श्रृंखला ___मन-वचन-काया की प्रवृत्ति के निमित्त पाकर कर्म वर्गणाएँ स्वत: आकर्षित हो जाती हैं और आत्म प्रदेशों में प्रवेश करके द्रव्यकर्म के रूप में परिणत हो जाती है। तत्पश्चात्
आत्मा के रागद्वेष मोहात्मक भाव कर्म का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म जीव के साथ बंधे रहते हैं। स्थितिपूर्ण होने पर द्रव्यकर्म उदय में आते हैं याने फलोन्मुख होते हैं। जीव में योग और उपयोग उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की यह निमित्त-नैमित्तिक श्रृंखला प्रवाह रूप से अनादिकाल से चली आ रही है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है, उसमें किसी को भी पहले या पीछे नहीं कहा जा सकता।१३३ ठीक इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म में भी किसी के पहले या पश्चात् होने का निर्णय नहीं किया जा सकता। इनमें संतति की अपेक्षा से पारस्परिक अनादि कार्य कारण भाव है। १३४ गणधरवाद में भी यही बात बताई गई है।१३५ समणसुत्तं में भी यही बात है।१३६ भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म कारण क्यों मानें
यदि यह शंका की जाए कि भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है, यह तो ठीक है; क्योंकि जीव अपने रागद्वेष मोहात्मक परिणामों के कारण ही द्रव्यकर्म के बंधन में बद्ध होता है, और जन्म मरणादि रूप संसार में परिभ्रमण करता है। इसका समाधान यह है कि यदि द्रव्यकर्म के अभाव में भी भावकर्म की उत्पत्ति संभव मानी जायेगी तो मुक्त जीवों में भी भावकर्म प्रादुर्भूत होने लगेगा, और उन्हें भी भावकर्मवश संसार में पुन: जन्म मरणादि चक्र