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________________ 153 और भावकर्म का आत्मा से संबंध बताते हुए कहा है, 'भावकर्म' आत्मा का वैभाविक परिणाम है। अत: उसका कर्ता जीव है और द्रव्यकर्म कार्मण जाति के पुद्गलों का विकार है, उसका भी कर्ता निमित्त रूप से जीव ही है।१२३ संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव कहलाता है। और जड़ अंश कर्म किन्तु वे चेतन जड़ अंश इस प्रकार के नहीं हैं, जिनका संसार अवस्था में अलग-अलग रूप में अनुभव किया जा सके। इनका पृथक्करण मुक्त अवस्था में ही होता है। संसारी आत्मा सदैव कर्म से युक्त होती है। जब वह कर्म से मुक्त हो जाती है तब वह संसारी आत्मा नहीं, मुक्तात्मा कहलाती है। कर्म जब आत्मा से पृथक् हो जाते हैं तब वह कर्म नहीं, शुद्ध पुद्गल कहलाते हैं।१२४ तत्त्वार्थसार में भी कहा गया है कि, जीव के रागद्वेषादि विकार भावकर्म कहलाते हैं। और रागद्वेषादि भावकों के निमित्त से आत्मा के साथ बंधनेवाले अचेतन (कार्मण) पुद्गल परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं।१२५ ___पं. ज्ञानमुनिजी के अनुसार जीव के मानस में जो विचारधारा चलती है, संकल्प विकल्प होते हैं, कषाय के भाव उत्पन्न होते हैं, किसी को लाभ-हानि पहुँचाने का मानसिक विकार 'भावकर्म' में परिगणित है, उन मानसिक विकारों के आधार पर जीव के जो पार्श्ववर्ती पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ जुडते हैं और आत्म प्रदेशों से संबंध स्थापित करते हैं उन्हें 'द्रव्यकर्म' के अंतर्गत माना जाता है।१२६ . जिनेन्द्रवर्णी के शब्दों में- 'कर्म के दो प्रकार हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्म। जैनशास्त्रों में बताया गया है कि पुद्गल की पर्याय क्रियाप्रधान है और जीव की भाव प्रधान। दोनों क्रमश: योग और उपयोग से संबद्ध होने के कारण दोनों कर्मों का संबंध जीव के साथ है।१२७ कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परंपरा अनादिकाल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति में कार्य कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए कार्मण जाति के पुद्गल परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म और तज्जनित राग-द्वेषादि परिणामों से हुई प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है। १२८ द्रव्यकर्म और भावकर्म की प्रक्रिया संसारी जीव की प्रत्येक मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति या क्रिया तो कर्म है ही, परंतु वह बंधकारक तभी बनता है, जब जीव के परिणाम राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि से युक्त हों। वही राग-द्वेषात्मक परिणाम भावकर्म कहलाता है। १२९ जैन दर्शन का मन्तव्य है कि, इस समग्र लोक में डिबिया में भरे हुए काजल की तरह
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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