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________________ 152 भाग्य, पुण्य, पाप आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका प्रयोग सामान्यतया सभी दर्शनों में हुआ है । ११५ जैनागमों में 'कर्म' के बदले कहीं कर्मरज, कर्ममल आदि शब्द भी मिलते हैं। आचारांगसूत्र ११६ और दशवैकालिकसूत्र ११७ ईसा११८ मोहम्मद ११९ ने कर्म शब्द के अर्थ में शैतान शब्द का प्रयोग किया है। कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य तीनों प्रकार के विग्रह से निष्पन्न होता है। राजवार्तिक में बताया गया है कि जिनके द्वारा किये जाएँ वह कर्म हैं। साध्य साधन भाव की विवक्षा न होने पर स्वरूप मात्र का कथन करने से कृत्ति (क्रिया) को भी कर्म कहते हैं । जैनदृष्टि से कर्म सामान्य व्युत्पत्तिभ्य अर्थ भी हो सकते हैं । १२० 1 कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म जैन दर्शन सम्मत कर्म के स्वरूप को सर्वांगीण रूप से समझने के लिए कर्म के द्रव्यात्मक एवं भावात्मक दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है। आत्मा के मानसिक विचारों के प्रेरक या निमित्त ये दोनों ही तत्त्व 'कर्म' में ताने बाने की तरह मिले हुए हैं। कर्म विज्ञान की समुचित व्याख्या के लिए कर्म के आकार (Form) और उसकी विषयवस्तु (Matter) दोनों पर ध्यान देना आवश्यक है। आत्मा के मनोभाव उसके आकार हैं और जड़ परमाणु विषयवस्तु है । १२१ ‘गोम्मटसार' में कर्म के चेतन और अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए कहा हैभावरूप कर्म तत्त्व की दृष्टि से एक ही प्रकार का है किन्तु वही कर्म द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। ज्ञानावरणीयादि पुद्गल द्रव्य का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति अथवा उस पिण्ड में फल देने की शक्ति भावकर्म है । १२२ जैन दर्शन में कर्म का निर्माण जड़ और चेतन दोनों के सम्मिश्रण से ही होता है। जड़ और चेतन दोनों के सम्मिश्रण के बिना कर्म की रचना ही नहीं हो सकती । द्रव्यकर्म हो या भावकर्म दोनों में जड़ और चेतन दोनों प्रकार के तत्त्व मिलते हैं । यद्यपि द्रव्यकर्म में पुद्गल की मुख्यता और आत्मिक तत्त्व की गौणता होती है, जबकि भावकर्म में आत्मिक तत्त्व की मुख्यता और पौद्गलिक तत्त्व की गौणता होती है । भावकर्म और द्रव्यकर्म में आत्मा और पुद्गल की प्रधानता, अप्रधानता होते हुए भी दोनों में एक दूसरे का सद्भाव- असद्भाव नहीं होता। आशय यह है कि आत्मा, आत्मा रहती है और पुद्गल - पुद्गल रहता है। समयसार (तात्पर्यवृत्ति) में कहा है कि, सुनार आभूषणादि के निर्माण का कार्य करता है, किन्तु वह स्वयं आभूषण स्वरूप नहीं हो जाता। उसी प्रकार आत्मा द्रव्यकर्म और भावकर्म का बंध करती हुई भी कर्म स्वरूप नहीं होती । आत्मा से संबंध पुद्गल को द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म कहा जाता है। पंडित सुखलालजी ने द्रव्यकर्म
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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