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________________ 151 आकर्षित करता है। इस कारण जीव का कर्मों के साथ संबंध (संश्लेष) होता है। इससे कार्मण पुद्गल भी कर्मभाव को प्राप्त होने से वे भी कर्म कहलाते हैं। ९९ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार 'कर्म पुद्गल से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं (शरीर रासायनिक तत्त्वों) से है, जो प्राणी की किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना संबंध स्थापित करके कर्म शरीर की रचना करते हैं। और समय विशेष पकने पर अपने फल (विपाक) के रूप विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर, अलग हो जाते हैं। इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं।१०० 'कर्म' शब्द का सामान्य अर्थ क्रिया है, जब उसके व्यंजनार्थ को ग्रहण किया जाता है, तब जीव के द्वारा होने वाली क्रिया से आत्म शक्तियों को आवृत करने वाले कार्मण वर्गणा के तथा अन्य पौद्गलिक परमाणुओं के संयोग को आत्मा में समुत्पन्न विषय कषायों के परिणमन को भी कर्म कहा जाता है। विभिन्न परंपरा में कर्म के समानार्थक शब्द जैन दार्शनिकों ने जिसे कर्म कहा है, उसके पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग आगमों और ग्रंथों में यत्र तत्र मिलते है। आदि पुराण में 'कर्म' शब्द केवल क्रिया रूप में ही परिलक्षित नहीं होता, अपितु कर्म रूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्दों के रूप में विभिन्न अर्थों को अभिव्यक्त करता है- 'विधि (कानून या प्रकृति के अटल नियम), स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत और ईश्वर ये कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं।१०१ अन्य दर्शनों में भी कर्मशब्द के समानार्थक माया, अविद्या, अपूर्व, वासना, अविज्ञप्ति, आशय, अदृष्ट, संस्कार, भाग्य, दैव, धर्मा-धर्म आदि शब्द प्रयुक्त किये हैं। आशय यह है कि सभी आस्तिक धर्मों और दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है, जो आत्मा की विभिन्न शक्तियों को तथा आत्मा की शुद्धता को प्रभावित करती है। उसके नाम, कर्म के बदले उन-उन दर्शनों और धर्मों ने भले ही शब्द भिन्न-भिन्न दिये हों। जैसे कि - बौद्ध दर्शन में उसे वासना और विज्ञप्ति कहा गया है। १०२ वेदांत दर्शन में उसी को माया और अविद्या कहा है।१०३ सांख्य दर्शन में उसको प्रकृति या संस्कार कहा गया है।१०४ सांख्यकारिका१०५ और सांख्यतत्त्व कौमुदी१०६ में भी यही बात आयी है। योगदर्शन में उसके लिए क्लेश, कर्म, आशय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।१०७ न्यायदर्शन में प्रयुक्त अदृष्ट और संस्कार शब्द भी इसी अर्थ में द्योतक हैं।१०८ न्यायसूत्र१०९ और न्यायमंजरी११० में भी यही बात बताई गई है। वैशेषिक दर्शन में 'धर्माधर्म' शब्द भी है जैन दर्शन में प्रयुक्त कर्म शब्द का समानार्थक है। १११ मीमांसा में अपूर्व शब्द भी कर्म के अर्थ में प्रयुक्त है।११२ तंत्रवार्तिक १३ और शास्त्र-दीपिका११४ में भी यही बात बताई है। दैव,
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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