SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 150 हैं।' ९३ योग एक विशिष्ट प्रकार की स्पंदन क्रिया है, जो काय, वचन और मन के निमित्त से होती है। इसी को षटखण्डागम में त्रिविध प्रयोग कर्म कहा गया है। वह तीन प्रकार का है- मनःप्रयोग-कर्म, वचनप्रयोग-कर्म और कायप्रयोग-कर्म। वह संसार अवस्था में स्थित जीवों के और सयोगी केवलियों को होता है।९४ इन तीनों योगों या प्रयोगों में काय, वचन और मन का आलंबन है और जीव की स्पंदन क्रिया को काययोग, वचन के निमित्त से उसकी स्पंदन क्रिया को वचन योग और मन के निमित्त से होने वाली उसकी स्पंदन क्रिया को मनोयोग कहते हैं। - जीव की कर्मरूपी यह स्पंदन क्रिया यहीं समाप्त नहीं हो जाती, अपितु जिन-जिन भावों से यह स्पंदन क्रिया होती है, उसके संस्कार अपने पीछे छोड जाती है। इसी को कर्म मीमांसा ५ और कर्मवाद९६ में भी व्यक्त किया गया है। ये कर्मजन्य संस्कार चिरकाल तक स्थायी रहते हैं, किन्तु यह प्रकृतिजन्य संस्कारों का आधार जीव को नहीं माना जाता है, क्योंकि जीव का संस्कार पुद्गल के आलंबन से होता है। अत: जिन भावों से स्पंदन क्रिया होती है, उनके संस्कार क्षण-क्षण में जीव द्वारा गृहीत पुद्गलों में ही संचित होते रहते हैं'। पुद्गल का योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन इस तथ्य का समर्थन तत्त्वार्थराजवार्तिक में किया गया है। जिस प्रकार पात्र में डाले अनेक रस वाले बीज पुष्प और फलों का मधरूप में परिणमन हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप से परिणमन हो जाता है।९७ कार्मण वर्गणा नामक पुद्गल ही इस काम में आते हैं। ये अति सूक्ष्म और समस्त लोक में व्याप्त हैं। जीव (मन, वचन, काय) की स्पंदन क्रिया इन्हें प्रति समय ग्रहण करता है और अपने भावों के अनुसार इन्हें संस्कार रूप में संचित करके, कर्मरूप में परिणत कर लेते हैं। जीव की स्पंदन क्रिया और भाव उसी समय निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु संस्कार युक्त कार्मण पुद्गल का जीव के साथ चिरकाल तक संबंध रहता है। ये यथासमय, यथायोग्य रूप से अपना काम करके ही निवृत्त होते हैं। ये कालांतर में फल देने में सहायता करते हैं।९८ आशय यह है कि संसारी जीवों में रागादि परिणाम और स्पंदन क्रिया होती है, इसलिए ये दोनों तो उसके ही कर्म हैं, किन्तु इनके निमित्त से कार्मण नामक पुद्गल-कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से इन्हें भी कर्म कहते हैं। ये त्रिविध द्रव्यकर्म कहलाते हैं। - पंचाध्यायी में बताया गया है कि जीव तथा पुद्गल में भाववती तथा क्रियावती शक्ति पाई जाती है। प्रदेशों के संचलन रूप परिस्पंदन को क्रिया कहते हैं और एक वस्तु में ही जो धारावाही परिणमन होता है, वह भाव है। जीव में वैभाविक शक्ति का सद्भाव है, इसलिए रागादि भावों एवं वैभाविक शक्ति विशिष्ट के कारण जीव कार्मण वर्गणा को अपनी ओर
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy