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149 उसमें सभी कर्मों का सापेक्ष महत्त्व स्वीकार किया है। आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से तीनों प्रकार के कर्मों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि से काय कर्म की प्रधानता है। स्वभाव की दृष्टि से वाक् कर्म ही प्रधान है। समुत्थान की दृष्टि से विचार करे तो मन:कर्म का ही प्राधान्य है। क्योंकि, सभी कर्मों का आरंभ मन से है।
बौद्ध दर्शन में समुत्थान कारण को प्रमुखता देकर ही कहा है, कि चेतना ही कर्म है। साथ ही इसी आधार पर कर्मों का एक द्विविध वर्गीकरण भी किया है- चेतना कर्म और चैतयित्वा कर्म। चेतना मानस कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के शेष दोनों वाचिक और कायिक कर्म चेतयित्वा कर्म कहे गये हैं।८९ बौद्ध-दर्शन में भी यही कहा है।९० 'कर्म' शब्द का अर्थ क्रिया, क्रिया का उद्देश, उसको करने की इच्छा और उसका प्रभाव एवं विपाक इन समस्त तथ्यों का समावेश हो जाता है। जैनदृष्टि से कर्म के अर्थ में क्रिया और हेतुओं का समावेश
__ जैन दर्शन में सामान्य रूप से कर्म का अर्थ क्रिया परक ही किया गया है, किन्तु यह उसकी एक आंशिक व्याख्या है। कर्मग्रंथ में कर्म की स्पष्ट परिभाषा इस प्रकार की गई है‘जीव (आत्मा) के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग आदि हेतुओं (कारणों) से जो किया जाता है वही कर्म कहलाता है।'९१ जैन दर्शन के अनुसार कर्म के हेतु और. क्रिया ये दोनों तत्त्व सन्निहित हैं। ___यदि व्यापक दृष्टि (निश्चय और व्यवहार, उभयदृष्टि) से देखा जाए तो कर्म शब्द समग्र कार्यों के अर्थ में घटित हो जाता है, फिर वह कार्य द्रव्यात्मक हो या भावात्मक, परिस्पंदन रूप हो या परिणमन, क्रियारूप हो या पर्यायरूप, क्योंकि कार्य उसे ही कहा जाता है- जो किसी एक समय विशेष में प्रारंभ होकर किसी दूसरे समय विशेष में समाप्त हो जाए। इसी दृष्टि से कर्म या कार्य नित्य न होकर उत्पन्न, ध्वंसी होते हैं। यही पर्याय का लक्षण है।९२
__ जैन दर्शन के अनुसार कर्म शब्द केवल क्रिया, कार्य या संस्कार के अर्थ में ही परिसीमित नहीं है, अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आत्मा से संबंद्ध ऐसा अर्थ लिया गया है। जिसमें जीव के द्वारा होने वाली प्रत्येक क्रिया और उसके फल तक सारे अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि जीव का स्पंदन तीन प्रकार का होता है- कायिक, वाचिक और मानसिक। प्रत्येक जीव शरीर से कुछ न कुछ क्रिया करता है। जिन जीवों को रसेन्द्रिय है वे वचन से कुछ न कुछ बोलते हैं तथा असंज्ञी जीवों को छोडकर शेष संज्ञी जीव मन से कुछ न कुछ सोचते विचारते हैं। ये तीन क्रियाएँ प्रत्येक के अनुभव गोचर होती हैं। ये क्रियाएँ बाह्य हैं। इनके सिवाय आभ्यंतर क्रियाएँ भी हैं, जो विशेष स्पंदन रूप होती हैं, इन्हें योग कहते हैं। जैसे कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है- 'काय, वचन और मन का व्यापार योग