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चूलिका, ७७ अभिधान राजेंद्र कोष ७८ और भगवतीसूत्र ७९ में भी यही बात दर्शाई गई है।
- वैशेषिक दर्शनों ने चलनात्मक अर्थ में होने वाली क्रिया को कर्म कहा है। कर्म के पांच भेद बतलाये हैं- उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन आदि । ८० न्याय सिद्धांत मुक्तावली में भी यही बात कही है । ८१
वैयाकरणों ने कर्म कारक के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया है और कर्म की परिभाषा की है - कर्ता के लिए जो अत्यंत इष्ट हो, अर्थात् कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जिसे प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म है । ८२
वैदिक परंपरा में वेदों से लेकर ब्राह्मण (ग्रंथ) काल तक यज्ञ-याग आदि नित्यमत्तिक क्रियाओं को कर्म कहा गया है। अर्थात् वैदिक काल में प्रसिद्ध अश्वमेघ, गोमेघ, स्वर्गकाम आदि वेदविहित यज्ञों के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं, तथा उनके संपादन के लिए जो भी विधि विधान निश्चित किये गये हैं, वे सब 'कर्म' माने गये हैं । वैदिक युग में यह माना जाता था कि- इन यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान देवों को प्रसन्न करने के लिए करना चाहिए ताकि देव प्रसन्न होकर उसके कर्ता की मनोकामना पूर्ण कर सकें। ८३ ज्ञानका अमृत८४ में भी यह कहा है।
स्मार्त विद्वानों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार आश्रमों के लिए नियत या विहित कर्तव्यों एवं मर्यादाओं के 'पालन करने को 'कर्म' कहा है।
पौराणिक के मत में व्रत नियम आदि धार्मिक क्रियाएँ 'कर्म' कहलाती हैं । ८५ भगवद्गीता में कर्मवाद केवल मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग आदि क्रियाकाण्डों के अर्थ में अथवा वर्णाश्रम धर्म के अनुसार किये जाने वाले स्मार्त कार्यों के ही संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है, अपितु, फलाकांक्षा रहित होकर अनासक्त भाव से या समर्पण भाव से कृतकर्म तथा सहजकर्म, ज्ञान युक्तकर्म कर्म कौशल आदि सभी प्रकार के क्रिया व्यापारों के व्यापक अर्थ में 'कर्म' शब्द प्रयुक्त हुआ है । ८६ भगवद्गीता८७ में भी यही कहा है। बौद्ध दार्शनिकों ने भी शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया है। तथापि वहाँ केवल चेतना को इन क्रियाओं में प्रमुखता दी गई है। चेतना को कर्म कहते हुए तथागत बुद्ध ने कहा है- 'भिक्षुओं! चेतना ही कर्म है, ऐस मैं कहता हूँ । चेतना के द्वारा ही (जीव ) कर्म को वाणी से, काया से या मन से करता है । इसका आशय यह है कि चेतना के होने पर ही ये सभी कर्म (क्रियाएँ) संभव हैं | ८८
बौद्ध दर्शन की दृष्टि से इसका स्पष्टीकरण करते हुए डॉ. सागरमलजी जैन ने लिखा है,