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इसलिए पूर्वोक्त कारणत्रय का योग होने पर भी वे मोक्ष पा नहीं सके, इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए पूर्वोक्त तीनों कारणों के साथ ही पूर्वकृत कर्मक्षय और रत्नत्रय साधना में पुरुषार्थ ये दोनों कारण होने भी अनिवार्य हैं। अत: पांचों कारणों का सापेक्ष समन्वय ही कार्य सिद्धि के लिए आवश्यक है। सर्वत्र पंचकारण समवाय से कार्य सिद्धि
संसार में देखा जाता है, पांचों कारण मिलने पर यांनी पांचों कारणों के समन्वय से कार्य होता है। पांचों में से एक भी कारण न हो तो कार्य निष्पन्न नहीं हो सकता। पांचों अंगुलियाँ इकट्ठी होती हैं तभी हाथ बनता है। हथेली के लिए पांचों अगुंलियाँ एक दूसरे से संलग्न होती हैं। इनमें छोटी बडी अंगुली अवश्य होती है, मगर पांचों के मिलने पर ही पहोचा होता है।
कर्मशब्द के विभिन्न अर्थ और रूप कर्म का सार्वभौम साम्राज्य
भारतीय जन जीवन में 'कर्म' शब्द बालक, युवक और वृद्ध सभी की जबान पर चढा है। विश्व के समस्त श्रेणी के विचारक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, तत्त्वचिंतक, साहित्यकार, श्रमजीवी एवं राजनैतिक, एक या दूसरे प्रकार से कर्म से संबंधित एवं प्रभावित हैं।
जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्मों का सार्वभौम साम्राज्य है। कर्म और उससे मिलने वाले फल पर विश्वास रखकर इन सभी क्षेत्रों के मानव कार्य करते हैं और धैर्यपूर्वक उसके परिणाम (फल) की प्रतीक्षा करते हैं। कृषक, विद्यार्थी, व्यवसायी आदि जो भी कर्म करते हैं, क्या उसका फल उन्हें तुरंत मिल जाता है? फिर भी वे श्रद्धा और निष्ठापूर्वक सत्कर्म करते हैं और उसका फल भी पाते हैं।
'कर्म' शब्द सभी आस्तिक धर्मग्रंथों, दर्शन, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों, लौकिक एवं लोकोत्तर शास्त्रों तथा जगत् के प्रत्येक व्यवहार, प्रवृत्ति अथवा कार्य में प्रयुक्त होता है। विभिन्न व्यवहारों में 'कर्म' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता है। समस्त शारीरिक मानसिक और वाचिक क्रियाओं को कर्म कहा जाता है। इसे कार्य, काम, व्यवहार या प्रवृत्ति भी कहते हैं। किसी भी स्पंदन, हलचल या क्रिया के लिए 'कर्म' शब्द का उपयोग किया जाता है, फिर वह क्रिया जड़ शक्ति की हो या चैतन्य शक्ति की, अर्थात् सभी काम, धंधा या व्यवसायों को भी 'कर्म' कहते हैं। भगवान ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि के अंतर्गत विविध कर्म यौगलिकों को सिखाये थे।७१ विशेषावश्यक भाष्य,७२ कर्म नो सिद्धांत,७३ कर्म मीमांसा,७४ उपासकदशांगसूत्र,७५ पंचाशकविवरण७६ आचारांग