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________________ 137 श्वेतांबर कर्मसाहित्य में ६ प्राचीन कर्मग्रंथों की रचना भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न समय में की गई। प्राचीन षट्कर्मग्रंथों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं। १) कर्म विपाक, २) कर्म स्तव, ३) बंध स्वामित्व, ४) षडशीति, ५) शतक, ६) सप्ततिका। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने प्राचीन कर्मग्रंथों को नये ढंग से प्रस्तुत किया। नाम वे ही रखे सिर्फ प्रत्येक भाग के पूर्व 'बृहत्' शब्द लगाया। फर्क इतना ही है कि नये कर्मग्रंथ की साइज कम कर दी याने कि विषय छुटा नहीं है। लेकिन पूर्व की अपेक्षा कर्मग्रंथ का रूप छोटा हुआ है। दिगंबर संप्रदाय में पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र के संदर्भ में आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि ने विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी में महाकर्मप्रकृतिप्राभृत (दूसरा नाम कर्मप्राभृत) की रचना की। इसके छह खण्ड हैं- जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बंध-स्वामित्व, विचय, वेदना, वर्गणा, महाबंध इसे षट् खण्डागम भी कहते हैं। इस पर अति विस्तृत धवला टीका है। आचार्य गुणधर ने कषाय प्राभृत उसका (अपर नाम पेज्जदोसपाहुड = प्रेयदोष प्राभृत) की रचना की। जयधवलाकार के अनुसार निम्नोक्त १५ अधिकार हैं- प्रेयोद्वेष, प्रकृति विभक्ति, स्थिति विभक्ति, अनुभाग विभक्ति, प्रदेश विभक्ति, बंधक, वेदक, उपयोग, चतु:स्थान व्यंजन, सम्यक्त्व, देशविरति, संयम, चारित्र मोहनीय की उपशमना, चारित्र मोहनीय की क्षपणा आदि की जय धवला टीका प्रसिद्ध है। दसवी-ग्यारहवीं शताब्दी में आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा गोम्मटसार कर्मकाण्ड की रचना हुई है। इसमें कर्मसंबंधी नौ प्रकरण हैं। इन्हीं आचार्य की एक कृति है लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित) इसमें कर्म से मुक्त होने का प्रतिपादन है। इसमें तीन प्रकरण हैं। १) दर्शन लब्धि, २) चारित्र लब्धि, ३) क्षायिक चारित्र ।५२ ।। __वर्तमान में श्वेतांबर संप्रदाय में कर्मग्रंथ और पंचसंग्रह तथा दिगंबर संप्रदाय में गोम्मटसार (कर्मकांड) के पठन-पाठन को बहुत ही प्रोत्साहन मिला है। इस प्रोत्साहन का दूसरा कारण यह है कि कर्मवाद जैन दर्शन का प्रमुख अंग है, अध्यात्म के साथ उसका घनिष्ठ संबंध है। कर्मशास्त्र के गहन वन में प्रविष्ट होने के बाद पाठक की चित्तवृत्ति स्वत: एकाग्र होने लगती है। प्रारंभ में कठिनतर प्रतीत होने वाला कर्मशास्त्र, अभ्यास हो जाने के बाद अतीव रसप्रद लगता है। उसमें चिंतन मननपूर्वक डुबकी लगाने पर अनेक दुर्लभ तत्त्वरत्न मिल जाते हैं। व्यक्ति अध्येता से ध्याता बन जाता है। कर्मशास्त्रों का मनोयोग पूर्वक क्रमबद्ध अध्ययन किया जाये तो इसमें सुगम और चित्त को धर्मध्यान के चरणभूत अपायविचय और विपाकविचय के ध्यान में तन्मय करने में आसान अन्य कोई शास्त्र नहीं है। धर्मध्यान के बिना प्रारंभिक दशा में मन को एकाग्र करना
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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