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________________ 138 अतीव दुष्कर है और कर्म सिद्धांत के चिंतन मनन ध्यान द्वारा स्व-स्वरूप में लीन हो जाने से परमात्मपद प्राप्ति या मुक्ति सहज हो सकती है। श्वेतांबर आचार्यों में विजयप्रेम सूरिश्वरजी म. जी ने समस्त श्वेतांबर एवं दिगंबर कर्म साहित्य का अध्ययन मनन, मंथन करके प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में नई शैली में लगभग दो लाख श्लोक परिमित खवगसेठी, पयडीबंधो, ठिईबंधो, रसबंधो, पएसबंधो आदि महान ग्रंथों की रचना की है।५३ कर्मसाहित्य का संक्षिप्त विवरण५४ कर्म सिद्धांत५४ में भी कहा गया है। पूर्वात्मक, पूर्वोद्धृत एवं प्राकरणिक कर्मशास्त्र की मूल गाथाएँ प्राकृत भाषा में हैं, किन्तु उन पर व्याख्याएँ, टीकाएँ, नियुक्तियाँ प्रायः संस्कृत भाषा में हैं। प्राकरणिक कर्म साहित्य पर हिंदी, गुजराती, कन्नड आदि तीन भाषाओं में अनुवाद, विवेचन, टीका, टिप्पणी आदि हैं। दिगंबर साहित्य में कन्नड, तमिल एवं हिन्दी आदि प्रादेशिक भाषाओं का तथा श्वेतांबर साहित्य ने हिंदी, गुजराती तथा राजस्थानी भाषा का आश्रय लिया है। इस प्रकार कर्मविषयक साहित्य सृजन उत्तरोत्तर कर्मवाद के समुत्थान से लेकर विकास के सोपान पर चढता रहा है। इस प्रगतिशील वैज्ञानिक युग में तो हिंदी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक गुजराती, बंगला, मराठी, कन्नड आदि भाषाओं में कर्मविज्ञान का विवेचन मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, शिक्षाविज्ञान, जीवविज्ञान, शरीरविज्ञान शास्त्र तथा भौतिक विज्ञान आदि के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक, अध्ययन, मनन, परिशीलन एवं साहित्य सृजन हो रहा है, इसलिए वह दिन दूर नहीं, जब कर्म विज्ञान आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर विश्व के समस्त विज्ञानों के साथ अनेकांत दृष्टि से परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करता हुआ विकास के सर्वोच्च शिखर को छू लेगा। अनेकांतवादी जैनदर्शन का मन्तव्य जैनधर्म और उसका दर्शन अनेकांतवादी है। वह पहले प्रत्येक तत्त्व को अनेकांतवाद के छन्ने से छानता है। अगर वह तत्त्व किसी अपेक्षा से आत्मा के लिए हितकर है, आत्मा की स्वतंत्रता को छीनता नहीं है, आत्मा से परमात्मा बनने के चरम लक्ष्य को प्राप्त कराने में उपयोगी है, तो वह उस तत्त्व को उस अपेक्षा से अपनाने और कर्मवाद के साथ सामंजस्य बिठाने में जरा भी हिचकिचाता नहीं है। विश्व वैचित्र्य के पांच कारण जैन दर्शन जब सृष्टि की विविधता, विसदृशता एवं विचित्रता के कारणों की मीमांसा करता है, तब उसके गहन सुदृष्टिपथ में विश्ववैचित्र्य के पांच महत्त्वपूर्ण कारण आते हैं उनके नाम से पांच वाद प्रचलित थे
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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