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कहते हैं। यद्यपि पूर्वात्मक कर्मशास्त्र यह विभाग काफी छोटा है, किन्तु कर्मशास्त्र के वर्तमान अध्येता की दृष्टि से काफी बडा है।
भगवान महावीर के बाद लगभग ९०० या १००० वर्ष तक पूर्व विद्याओं का ह्रास होने लगा था। उस समय दस पूर्वधारी आचार्यों को कर्म विषयक ज्ञान का स्मरण था। उनसे ग्रहण धारण के आकर कर्मशास्त्र लिखे गये। यह भाग साक्षात् पूर्वो से उद्धृत माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही परंपरा के विद्वानों द्वारा रचित कर्मशास्त्रों में यह पूर्वोद्धत अंश विद्यमान है, क्योंकि ऐसा देखा गया है कि पूर्व विद्या का मूल अंश विद्यमान न रहने के कारण इनमें कहीं कहीं श्रृंखला खण्डित हो गई है, फिर भी पूर्व से उद्धृत पर्याप्त अंश सुरक्षित है।
श्वेतांबर संप्रदाय से कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका ये चार महाग्रंथ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं। कर्मप्रकृति-आचार्य शिवशर्म सूरि द्वारा रचित्त है।५० जिसका समय विक्रम की पांचवी शताब्दी माना जाता है। इसमें कर्मसंबंधी बंधन, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, निधत्ति, निकाचना एवं निषेचना इन ८ करणों का तथा उदय और सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन है। पंचसंग्रह महाग्रंथ आचार्य चंद्रर्षि महत्तर द्वारा रचित है। इसमें योगोपयोग, मार्गणा, बंधव्य, बंध-हेतु और बंध-विधि इन पांच द्वारों तथा शतकादि पांच ग्रंथों का समावेश होने से इसका पंचसंग्रह नाम सार्थक है। दिगंबर संप्रदाय में महाकर्मप्रकृति प्राभृत तथा कषायप्राभृत, ये दो ग्रंथ पूर्वो से उद्धृत माने जाते हैं। ३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र
पूर्वोद्धत कर्मशास्त्र के पश्चात् कर्मवाद के विकास का यह तीसरा महायुग था। यह तृतीय विभाग का संकलन का फल है। इसमें कर्म संबंधी अनेक छोटे बड़े प्रकरण ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन विशेषत: प्रचलित है। . इन प्राकरणिक कर्मशास्त्र का संकलन संपादन विक्रम की आठवी, नौवी शताब्दी से लेकर सोलहवी, सत्रहवी शताब्दी तक हुआ है। यह कर्म साहित्य रचना का उत्कर्षकाल है। इस काल में कर्म सिद्धांत पर विभिन्न आचार्यों द्वारा रचित प्रकरण ग्रंथों के पठन पाठन की
ओर विशेष रुचि जगी। कर्मवाद विषयक प्रकरण ग्रंथों के पठन-पाठन को इस युग में अधिक प्रोत्साहन भी मिला। इसके मुख्य दो कारण हैं- मध्ययुग के आचार्यों का ध्यान अन्यान्य विषयों से हटकर कर्म विषयक प्राकरणिक ग्रंथों की रचना की ओर आकर्षित हुआ। फलत: उन्होंने क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से कर्मशास्त्र को निर्मित एवं पल्लवित किया। इसलिए इन प्रकरण ग्रंथों के अध्ययन अध्यापन को प्रोत्साहन मिलने का पहला कारण यह है कि कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि पूर्वोद्धृत ग्रंथ बहुत ही विशाल एवं गहन हैं।५१