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________________ 135 वही स्थान है, जो संस्कृत साहित्य में व्याकरण का है। जैसे व्याकरण संस्कृत भाषा में निबद्ध साहित्य को अनुप्राणित एवं निर्वचनीकृत करता है, वैसे ही कर्मशास्त्र जैन दर्शन एवं जैन धर्म के समग्र साहित्य को अनुप्राणित एवं निर्वचनी कृत करता है । शब्द शास्त्र, शब्द रचना को नियम बद्ध करता है । उसी प्रकार कर्मशास्त्र भी कर्मतत्त्वों को नियम बद्ध करता है । अत: जैन वाङ्मय में कर्मशास्त्र अथवा कर्मग्रंथ के रूप में प्रख्यात कर्मसाहित्य महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वतंत्र कर्मग्रंथों के अतिरिक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन, विपाकसूत्र, निरयावलिका आदि आगमों में तथा परवर्ती आचार्यों एवं कर्मशास्त्र के मर्मज्ञों द्वारा रचित ग्रंथों में कर्म संबंधी चर्चा विचारणा विशदरूप से हुई है । ४८ जैन आचार्यों ने कर्मवाद की गरिमा और उनके मूल हार्द को उन्होंने सुरक्षित रखा । कर्मवाद के विकास के संदर्भ में जैनाचार्यों द्वारा रचित कर्म विषयक साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं, तो हमें गौरव का अनुभव होता है, कि कर्म सिद्धांत पारिभाषिक शब्दावलियों और गूढ परिभाषाओं में जटिल और दुरुह बना हुआ था, उसे कर्मवाद मर्मज्ञों ने बहुत ही सरल तथा लोक भाग्य बना दिया । कर्मवाद का विकास क्रम : साहित्य रचना के संदर्भ में कर्मवाद का यह विकास किस क्रम से हुआ, कब-कब हुआ ? इस संबंध में अनादिकाल से प्रवाह चला आ रहा है। कर्मवाद का भगवान महावीर से लेकर अब तक ढाई हजार वर्ष कुछ अधिक समय तक उत्तरोत्तर जो संकलन हुआ है, उस पर विचार करना आवश्यक है। उक्त संकलन को हम तीन विभागों में विभक्त कर सकते हैं। यह तीन विभाग कर्मवाद के उत्तरोत्तर विकास के तीन महायुग समझने चाहिए। से वे तीन विभाग इस प्रकार हैं - १) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र २) पूर्वोद्धृत अथवा आकर कर्मशास्त्र ३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र १) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र कर्मवाद का पूर्वात्मक रूप में संकलन कर्मवाद के विकास का प्रथम महायुग था । पूर्वात्मक रूप से संकलित कर्मशास्त्र सबसे विशाल और सबसे प्रथम है, क्योंकि इसका अस्तित्व तब तक माना जाता है, जब तक कि पूर्व विद्या विच्छिन्न नहीं हुई थी । ४९ २) पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र पूर्वोद्धृत रूप में कर्मवाद के विकास का द्वितीय महायुग था । इसे आकर कर्मशास्त्र भी
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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