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________________ 134 करने में अंगरूप नहीं बन सकता। किन्तु जैन दृष्टि से कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का मूल स्रोत कर्मप्रवाद पूर्व (जो १४ पूर्वों में से एक पूर्व) नामक महाशास्त्र है। इसमें कर्मवाद अथवा कर्मतत्त्व से संबंधित सांगोपांग एवं विस्तृत वर्णन था । इसके अतिरिक्त अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के एक विभाग का नाम था - कर्म प्राभृत (कर्म - पाहुड) तथा पंचम पूर्व के विभाग का नाम था कषाय (पाहुड) प्राभृत इन दोनों प्राभृतों में भी कर्म से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर सांगोपांग विशद विवेचन था । चतुर्दश विभागों में विभक्त पूर्वविद्या का यह (कर्मवाद संबंधी) विभाग सबसे अतीव महत्त्वपूर्ण एवं सबसे पहले था । कर्मवाद संबंधी इन पूर्वशास्त्रों का अस्तित्व तक माना जाता है, जब तक पूर्वविद्या का विच्छेद नहीं हुआ । श्रमण भगवान महावीर निर्वाण के नौ सौ अथवा एक हजार वर्ष तक पूर्व विद्या सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुई थी अतः यहीं से ही कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का प्रारंभ समझना चाहिए । ग्रंथकारों के क्षयोपशम के अनुसार वस्तु वर्णन एवं तत्त्वों के विवेचन में विशदताअविशदता, सुगमता-दुर्गमता या न्यूनाधिकता अवश्य हुई है और होनी संभव है, किन्तु दोनों संप्रदायों के महान मनीषियों द्वारा रचित विपुल कर्म साहित्य को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने कर्म सिद्धांत का गौरव कम किया है। इस प्रकार सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कर्मवाद का उत्तरोत्तर समुत्थान और विकास जैन मनीषियों ने किस प्रकार किया है। यही कर्मविषयक विपुल साहित्य जैन -दर्शन की 'बहुमूल्य निधि है। कर्मवाद जैनदर्शन का असाधारण एवं प्रमुख वाद है । अत: नयवाद, प्रमाणवाद आदि वादों की तरह कर्मवाद का समुत्थान भी भगवान महावीर से ही समझना चाहिए। जैन दर्शन का गहराई से अध्ययन करने वाले जानते हैं कि कर्मवाद का भगवान महावीर के शासन (धर्मसंघ) के साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि कर्मवाद को उससे पृथक कर दिया जाय तो ऐसा प्रतीत होगा मानो जीव से प्राण को अलग कर दिया हो । वस्तुतः कर्मवाद जैन सिद्धांत की चर्चाओं का मूल स्रोत है। भारतीय तत्त्व चिंतन में उसका विशिष्ट स्थान है । अनेक प्रश्नों का समाधान भी कर्मवाद पर आधारित है । ४७ कर्मवाद का सांगोपांग अध्ययन एवं उसे हृदयंगम किये बिना कोई भी व्यक्ति जैन सिद्धांत का सम्यक् मर्मज्ञ नहीं हो सकता न ही उसकी अनेक अटपटी गुत्थियों को आसानी से सुलझा सकता है। 1 कर्मविज्ञान विशेषज्ञों ने कर्म से संबद्ध विभिन्न तथ्यों को पारिभाषिक शब्दों में आबद्ध करके सैद्धांतिक रूप दे दिया है। ऐसा कहा जा सकता है कि जैन वाङ्मय में कर्म साहित्य का
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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