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________________ 128 .तत्कालीन समग्र जनता ने उन्हें विधिवत् राज्याभिषेक करके अपना राजा और जन नायक बनाया। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव प्रथम सम्राट हुए । १९ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १२ में भी यही कहा है। जब भगवान ने देखा कि अब राज्य शासन और जनशासन दोनों व्यवस्थित ढंग से चल रहे हैं। नैतिकता प्रधान शुभ कर्म एवं लोकधर्म दोनों जन जीवन में व्याप्त हो गये हैं । फिर भी हाकार, माकार और धिक्कार इन तीनों दंडक्रमों के कारण जनता में अराजकता अनीति, अन्याय, अत्याचार आदि अपराध बहुत ही कम हो पाते थे । १३ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र१४ त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र १५ और आदिपुराण १६ में भी यही बात बताई है, परंतु भगवान ऋषभदेव को तो समग्र जनता को शुद्ध लोकोत्तर धर्म पालन की ओर मोडना था, ताकि जनता कर्मों से मुक्त होने का पुरुषार्थ कर सके और सिद्ध ( स्वभावरूप) बुद्ध, मुक्त (सिद्ध) परमात्मा बन सके। इसके लिए सर्वप्रथम निम्नोक्त कहावत 'Charity begin's at home' के अनुसार स्वयं से प्रारंभ किया। स्वयं सर्वविरती महाव्रती अनगार बने और जिनशासन (धर्मसंघ) का निर्माण किया। प्रथम तीर्थंकर बने । राज्यशासन अपने दोनों प्रतापी एवं शासनकुशल पुत्रों- भरत और बाहुबली को सौंपा। शेष ९८ पुत्रों को छोटे-छोटे राज्यों के शासक बनाए। भगवान ऋषभदेव के साथ ४००० अन्य व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की थी। आवश्यक निर्युक्ति १७ में भी यही बात कही है। दोनों धर्मों का लक्ष्य एक ही था । कर्मों सर्वथा मुक्ति पाना, मोक्ष प्राप्त करना। बाद में उनके ९९ पुत्रों और दोनों पुत्रियों (ब्राह्मीसुंदरी) ने भी साधु धर्म की दीक्षा अंगीकार की । धर्म-कर्म - संस्कृति आदि का श्रीगणेश निष्कर्ष यह है कि भगवान ऋषभदेव से पूर्व उस युग में धर्म, कर्म, संस्कृति और सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था। उन्होंने ग्राम और नगर बसाकर उस युग की जनता को सभ्यता और संस्कृति का प्रशिक्षण दिया, कर्मवाद से भली भाँति परिचित कराया। अशुभकर्म करने से रोका, शुभ कर्म से भी आगे बढकर शुद्ध धर्म का पालन करने और कर्मों से मुक्त होने अथवा कर्मक्षय करने की प्रेरणा दी। उन्होंने प्रारंभ से ही धर्मप्रधान समाज की रचना की, उसमें अर्थ और काम को गौण रखा और मोक्ष पुरुषार्थ को जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया। इसमें कहीं भी उन्होंने देवी देवता की मान्यताओं का समर्थन न देते हुए आत्म शक्ति को सर्व श्रेष्ठ माना है, तथा सृष्ट प्राणियों की विविधता और विचित्रता का कारण बाह्य तत्त्वों में न ढूंढते हुएँ अंतरात्मा में ढूंढने की प्रेरणा दी, तथा जनता को यही उपदेश दिया कि सभी जीवों के अपने पूर्वकृत कर्मों के फल स्वरूप ये सब विविधताएँ एवं विचित्रताएँ हैं ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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