SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 127 करना चाहो, यह संभव नहीं है। तुम देख रहे हो कि जनसंख्या तेजी से बढती जा रही है और वनसंपदा या प्राकृतिक संपदा कम होती जा रही है | " ऐसी स्थिति में अब तुम्हें कर्मभूमि के अनुसार जीवन - निर्वाह के लिए कुछ न कुछ कर्म (वर्तमान कालिक पुरुषार्थ) करना चाहिए, इसके बिना कोई चारा नहीं है। तुम चाहो कि कुछ भी कर्म न करना पडे और प्रकृति से सीधे ही जीवन निर्वाह के साधन मिल जायें, ऐसा अब नहीं हो सकता । यद्यपि किसी भी क्रिया या प्रवृत्ति के करने से कर्मों का आगमन (आस्त्रव) अवश्यंभावी है और तुम लोग एकदम कर्म से अकर्म (कर्ममुक्त ) स्थिति प्राप्त कर लो, यह भी अतीव दुष्कर है तथापि क्रिया करते समय अगर तुम में राग, द्वेष आसक्ति, मोह, ममता आदि कम होगें और सावधानी . एवं जागृति रखी जाएगी तो पापकर्मों का बंध नहीं होगा। इसलिए गृहस्थ जीवन की भूमिका में तुम्हें वे ही कर्म (क्रिया या प्रवृत्तियाँ) करने हैं, जो अत्यंत आवश्यक हों, सात्त्विक हों, अहिंसक हों, परस्पर प्रेमभाववर्धक हों । - इसके लिए उन्होंने मुख्यतया असि, मसि और कृषि ये तीन मुख्य कर्म एवं विविध शिल्प तथा कलाएँ उस समय के स्त्री पुरुषों को सिखाई। कृषिकर्म, कुंभकार कर्म, गृहनिर्माण, वस्त्रनिर्माण, भोजननिर्माण आदि कर्म उन्होंने स्वयं करके जनहित की दृष्टि से जनता को सिखाए । ९ कल्पसूत्र १० १० में भी यह बताया है। इन सब कलाओं, विद्याओं, शिल्पों आदि से. जनता को प्रशिक्षित करने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि जनता परस्पर संघर्षशील एवं कषायमुक्त होकर, अशुभ (पाप) कर्म से बचे तथा भविष्य में शुभ कर्म करते हुए शुद्ध परिणति की ओर मुडकर संवर निर्जरारूप आत्मधर्म की ओर मुड़े। अगर भगवान ऋषभदेव उस समय की यौगलिक जनता को सत् सात्विक कार्यों का उपदेश एवं प्रशिक्षण न देते तो बहु संभव था, जनता परस्पर लड़ भिड़कर, संघर्ष और कलह करके तबाह हो जाती । सबल लोग निर्बलों पर अन्याय, अत्याचार करते, उन्हें मार काटकर समाप्त कर देते अथवा अत्याचार एवं शोषण से पीडित जनता रोजी, रोटी, सुरक्षा एवं शांति के अभाव में स्वयं ही समाप्त हो जाती या फिर वह पीडित जनता विद्रोह, लूट, मार-काट और अराजकता पर उतर जाती। इस प्रकार अराजक एवं निरंकुश जनता हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार आदि पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाती । कर्ममुक्ति के लिए धर्मप्रधान समाज का निर्माण भगवान ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समग्र जनता को राज्यसंगठन (राज्यशासन) में आबद्ध किया। फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ग के लोगों को प्रशिक्षण देकर जनशासन बनाया। सबको अपने कर्तव्य का मार्गदर्शन किया। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने शुभ कर्म (सात्त्विक कार्य) और धर्म से संबंधित तथ्यों का मार्गदर्शन दिया ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy