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________________ 126 अत्युक्ति नहीं होगी कि कर्मवाद भी प्रवाह रूप से अनादि है यह अभूतपूर्व नहीं है। नये नये ढंग से उसका विश्लेषण विभिन्न तीर्थंकरों के समय में अवश्य हुआ है। अत: जैन इतिहास की दृष्टि से कालचक्र के अन्तर्गत इस अवसर्पिणी काल में आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के युग से कर्म सिद्धांत का आविर्भाव मानना अनुपयुक्त नहीं होगा। कर्मवाद के अविर्भाव का कारण आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से कर्मवाद का आविर्भाव या आविष्करण मानने में एक प्रबल कारण यह भी है कि जैन इतिहास के अनुसार उस युग से पहले तक भोगभूमि का साम्राज्य था, यौगलिक काल था। सभ्यता, संस्कृति, धर्म और कर्म के विषय में वे लोग सर्वथा अनभिज्ञ थे। धर्म और संस्कृति का कर्म और सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था। बालक-बालिका युगल रूप में जन्म लेते थे और युगलरूप से ही वे दाम्पत्य संबंध जोड लेते थे। अंत में एक युगल को जन्म देकर वे इस लोक से विदा हो जाते थे। वे अपनाजीवन निर्वाह वनों में रहकर फलफूल वनस्पति आदि से कर लेते थे। खेती बाडी अग्नि का उपयोग, विनिमय, व्यवसाय, बर्तन आदि निर्माण का आविष्कार उस समय नहीं हुआ था, इस प्रकार उन लोगों का जीवन शांत, मधुर और प्रकृति पर निर्भर था। प्राकृतिक संपदाएँ प्रचुर मात्रा में यत्र-तत्र मिलती थी। इस कारण उनमें कभी आपस में संघर्ष, कलह, मन-मुटाव नहीं होता था, उनके क्रोधादि कषाय अत्यंत मंद थे। स्वार्थ, लोभ, लालसा, तृष्णा, संग्रहवृत्ति आदि भी उनमें अत्यंत कम थी, किन्तु इस भोगभूमि काल का जब तिरोभाव होने जा रहा था, इन सब में परिवर्तन आने लगा। यौगलिक काल लगभग समाप्त हो चला था। संतति वृद्धि होने लगी। इससे जनसंख्या भी बढने लगी। उधर प्राकृतिक संपदा में कोई वृद्धि नहीं हो रही थी, वह उतनी ही थी अत: जीवन निर्वाह के साधनों में कमी होने लगी। जहाँ अभाव होता है वहाँ जन स्वभाव भी बदलने लगता है। इस दृष्टि से लोगों के जीवन में निर्वाह के साधनों के लिए परस्पर संघर्ष होने लगा। प्रतिदिन के संघर्ष से लोगों का जीवन कलुषित होने लगा। परस्पर कलह और मनोमालिन्य बढने लगा। ऐसी स्थिति में यौगलिक जनता उस युग के कुलकर नाभिराय के पास पहँचे और वर्तमान संकट के निवारण के लिए उपाय पछने लगे। तब नाभिरायजी ने अपने सुपुत्र भावी तीर्थंकर के पास मार्गदर्शन लेने को कहा। भगवान ऋषभदेव द्वारा कालानुसार जीवन जीने की प्रेरणा भगवान ऋषभदेव उस युग में परम अवधिज्ञान संपन्न महान पुरुष थे। उन्होंने यौगलिक जनों के असंतोष, पारस्परिक संघर्ष के कारण और उसके निवारण का उपाय बताते हुए कहा - "प्रजाजनों अब भोगभूमि काल समाप्त हो चला है, और कर्मभूमि काल का प्रारंभ हो चुका है। अब तुम लोग उसी पुराने ढर्रे के अनुसार प्राकृतिक संपदाओं से ही अपना निर्वाह
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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