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तृतीय प्रकरण
कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन
जैनदृष्टि से कर्मवाद का आविर्भाव
जैन धर्म के आगमों और पौराणिक ग्रंथों में कर्म के आविर्भाव की कुछ कुछ झाँकियाँ मिलती हैं। उससे इतना तो स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल में भी तीर्थंकरों और ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में कर्मवाद की चर्चा - विचारणा अवश्य की है। जैन धर्मशास्त्रों की मान्यता के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर श्रमण भगवान महावीर तक जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनसे पहले भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के कालचक्र में भी अनंत चौबीसी हो चुकी हैं। १ 'यंत्र मंत्र तंत्र विज्ञान' २ और 'जैन थोक संग्रह' ३ में भी यह बात कही है। यह सिद्धांत सभी तीर्थंकर, केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) महान आत्माओं के लिए अबाधित है कि चार घाति ( आत्मगुण घातक) कर्मों का सर्वथा क्षय किये बिना कोई भी मानव तीर्थंकर, केवलज्ञानी या अर्हत्, जीवन्मुक्त परमात्मा नहीं हो सकता और सिद्ध बुद्ध मुक्त "होने के लिए आठों ही कर्मों का सर्वथा क्षय करना अनिवार्य है।
कर्मप्रवाह को तोड़े बिना परमात्मा नहीं बनते
जगत के जीवों के साथ जैसे आत्मा अनादिकाल से है, वैसे ही कर्म भी प्रवाह रूप से अनादिकाल से है, किन्तु जैसे व्यक्तिशः कर्म की आदि है वैसे उसका अंत भी है। आ निश्चय दृष्टि से अनादि अनंत है यदि ऐसा न होता तो तीर्थंकर, जीवन्मुक्त, वीतराग परमात्मा चार घाति कर्मों का क्षय क्यों और कैसे करते ? और वीतराग बनने के पश्चात् भी शेष रहे चार अघाति कर्मों का क्षय क्यों और कैसे करते और सिद्ध बुद्ध मुक्त निरंजन निराकार परमात्मा कैसे होते? इसलिए यह निर्विवाद है कि कर्म का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है।
प्रमाणमीमांसा में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने कहा है- अनादिकाल से .प्रवाह रूप से, शब्द रूप से नहीं तो भाव रूप से कर्म का प्रवाह चला आ रहा है। कर्मवाद आदि विद्याओं का आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक समयसमय पर विस्तृत रूप से नयी-नयी शैली में प्रतिपादन होता रहा है। इस दृष्टि से कर्म सिद्धांत के प्रतिपादन कर्ता तीर्थंकर, गणधर, आचार्य आदि कहलाते हैं । ४
जैनधर्म किसी देश विदेश में एक समान भले ही दिखाई न देता हो, किन्तु जैनधर्म और कर्मवाद का, सूर्य और उसकी किरण के समान घनिष्ठ संबंध रहा है। इसलिए यह कहन