SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 108 मनुष्यों के सांप्रदायिक जीवन में भी विविध मत, विविध पंथ, पारस्पारिक साम्प्रदायिक राग-द्वेष, ईर्षा, आसक्ति, मोह, पद, प्रतिष्ठा की लालसा आदि विभिन्न विकृतियाँ विरूपता का मूल कारण भी कर्मकृत मानना चाहिए । १५९ मानव के आर्थिक जीवन में भी विभिन्नताएँ प्रतीत होती हैं। बौद्ध दर्शन की दृष्टि से विसदृशता कारण कर्म 'मिलिंद -प्रश्न' में मिलिंद राजा और तथागत बुद्ध के प्रसिद्ध शिष्य स्थविर नागसेन का वार्तालाप इसी तथ्य का समर्थन करता है कि सभी मानव अपने कर्मानुसार फल भोगते हैं । १६० - जैन शास्त्रानुसार श्री देवेन्द्रसूरि ने स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य को स्वीकार किया है राजा-रंक, बुद्धिमान - मूर्ख, सुरूप- कुरूप, धनिक- निर्धन, बलिष्ठ निर्बल, रोगी - निरोगी तथा भाग्यशाली - अभागा इन सब में मानव समान रूप में होने पर भी अंतर दिखाई देता है, वह कर्मकृत है। पंचाध्यायी में इस सिद्धांत का १६१ समर्थन किया गया है। यह कर्म कारण है । १६२ कई लोग विश्ववैचित्र्य को कर्मकृत स्वीकार करते हुए भी कहते हैं कि आत्मा (जीव ) अज्ञ है, अनाथ है, इसलिए समस्त जीवों के सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक एवं गमनागमन सब ईश्वरकृत है। ईश्वर ही जगत् के वैचित्र्य का कर्ता, धर्ता, हर्ता है। वैदिक संस्कृति ग्रंथ महाभारत में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है। वस्तुतः ईश्वर कतृत्व्यवादी जितने भी दर्शन हैं या ईसाई इस्लाम आदि मजहब हैं, वे सब ईश्वर को केन्द्रबिंदु मानकर चलते हैं। वे मानते हैं कि जीव की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति का नियामक ईश्वर है । उसकी इच्छा या प्रेरणा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । १६३ महाभारत वनपर्व १६४ कर्मवाद १६५ अष्ट- सहस्त्री १६६ में भी यही बात आयी है । आप्तपरीक्षा१६७ अष्टशती१६८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक१६९ स्याद्वादमंजरी १७० में इसका निराकरण करते हुए कहा गया है यह भावसंसार काम, क्रोध, अज्ञान, मोहादिरूप विभिन्न स्वभाववाला है, उसके सुख दुःखादि सत्कार्य में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। अतः भिन्न स्वभाव वाले पदार्थ या जगत् क स्वभाव वाले ईश्वर से उत्पन्न नहीं हो सकते। जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पाई जाती है, उसका कारण स्वभाव स्वभाव की विभिन्नता है । अतः यह जगत् वैचित्र्य ईश्वरकृत नहीं, स्व-स्वकर्मकृत है। गीता में भी कहा है कि ईश्वर जगत के कर्तृव्य और कर्मों का सृजन तथा कर्मफल संयोग नहीं करता, जगत् अपने अपने स्वभाव तथा कर्मानुसार प्रवर्तमान है । १७१
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy