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________________ 107 पाँच तथा पच्चीस भेद हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भी जीव में कर्म कृत विभिन्नता है।१५४ १४) आहार - आहार को लेकर भी विभिन्नता है। शरीर नामकर्म के उदय से देह वचन द्रव्य मनरूप बनने योग्य नोकर्म वर्गणा के ग्रहण को अथवा छहों पर्याप्तियों के पुद्गलों के ग्रहण को भी आहार कहते हैं। एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव एक या दो अथवा तीन समय तक अनाहरक रहते हैं। इस प्रकार आहारक और अनाहारक को लेकर जीवों की विभिन्नता भी कर्मकृत है। निष्कर्ष यह है कि इन चौदह मार्गणा- द्वारों को लेकर जीवों की विभिन्न स्थितियाँ होने का मूल कारण कर्म हैं।१५५ सर्वार्थसिद्धि१५६ में भी यह बात कही है। विश्व के विशाल रंगमंच पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो अनंत अनंत जीवों की विभिन्न दशाएँ हैं, जैसे कि सुख-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति, सौभाग्य-दुर्भाग्य, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, सुगतिदुर्गति, सुजाति-दुजाति, सुस्पर्शता-दुःस्पर्शता, सुरसता-विरसता, सुगंधितता-दुर्गंधितता, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि दृष्टि गोचर होती है। यह केवल मनुष्य में ही नहीं कुल चौरासी लाख जीवयोनि के प्राणियों में भी विचित्रता देखी जाती है।१५७ इसी प्रकार मानव जाति में भी अनगिनत प्रकार की विषमताएँ प्रतीत होती हैं। कर्म विज्ञान, मनोविज्ञान और शरीरशास्त्र का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए श्री रतनलालजी अपने लेख में लिखते हैं कि- वैयक्तिक भिन्नता भी प्रत्यक्ष देखी जाती है। कर्मशास्त्र वाले विचित्रता का मूल कारण कर्म को मानते हैं। आनुवांशिक संस्कार को नहीं, यदि आनुवांशिक माने तो एक ही परिवार में दो पुत्रों में विभिन्नता दृष्टि गोचर होती है, एक पुत्र नीतिमान, धार्मिक, सरल प्रकृतिवाला है और दूसरा पुत्र दुराचारी, नास्तिक और कुटिल प्रकृति का होता है। आनुवांशिक संस्कार होते तो इस प्रकार की भिन्नता नहीं आती। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि 'जीव पूर्वकृत कर्मों के कारण उत्तमकुल, सुंदर निरोगी शरीर, महाप्राज्ञ, कुलीन, यशस्वी, प्रतिष्ठित एवं बलिष्ठ होता है।१५८ __सामाजिक जीवन में नाना प्रकार की विसदृशता पाई जाती है। प्रत्येक जाति के अपनीअपनी रहन, सहन, संस्कार, परंपरा, रीति, रिवाज आदि में भी अंतर पाया जाता है। कई जातियों एवं धर्म संप्रदायों, पंथों में पशुबलि-नरबली, कुर्बानी (पशुवध), मांसाहार, मद्यपान आदि क्रूर अमानवीय एवं घृणित हिंसक प्रथाएँ हैं, तो कई जातियों, धर्मसंप्रदायों वंश परंपरा में पशुबलि आदि प्रथाएँ बिल्कुल नहीं हैं। इस प्रकार समाज में विषमता का मूल कारण कर्म है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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