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या नास्तिक लोग चाहे बौद्धिक क्षमता, अक्षमता या ज्ञान तंतुओं की सबलता निर्बलता बता दे, परंतु इन सब का मूल कारण जीवों के अपने अपने कर्म ही हैं।१४७ ८) संज्ञा - जैन शास्त्रों में चार प्रकार की संज्ञा बताई गई है- आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा
और परिग्रह संज्ञा इन चारों संज्ञाओं में भी किस जीव में कोई संज्ञा अधिक और कोई संज्ञा कम दिखाई देती है। इस प्रकार जीवों की संज्ञा में तारतम्यता दिखाई देती है। प्रत्येक जीव के अपने-अपने कर्म ही हैं।१४८ सर्वार्थसिद्धि१४९ गोम्मटसार१५० में भी यही बात कही है। ९) संयम - संयम पाँचों इन्द्रियों पर नियंत्रण करना। संसार में बहुत कम जीव ऐसे हैं, जो महाव्रतधारी हैं जिन्होंने इन्द्रियों को वश में किया है। कुछ गृहस्थ जीवन में भी संयमासंयमी हैं, जो अणुव्रतों का पालन करते हैं। इसके अलावा अनंतजीव असंयमी हैं। यह तारतम्यता है उसका मूल कारण शुभाशुभ कर्मों का उदय, क्षय या क्षयोपशम ही है। १०) दर्शन - पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का निर्विकल्प रूप से ग्रहण (ज्ञान) करना 'दर्शन' कहलाता है।१५१ दर्शन को लेकर जीवों में अनेक प्रकार के भेद हैं। चउरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन होता है। एकेन्द्रिय से तेइन्द्रिय तक के जीवों में चक्षुदर्शन नहीं होता है। इतनी विभिन्नता का कारण कर्म के उदय, क्षय या क्षयोपशम को ही समझना चाहिए। ११) लेश्या - लेश्या से आत्मा कर्मों से श्लिष्ट लिप्त होती है। कषायोदय से अनुरंजित होने पर आत्मा के जैसे जैसे परिणाम होते हैं वैसी वैसी लेश्या होती है। लेश्या छः प्रकार की होती है। प्रथम तीन कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या अशुभ हैं और अंतिम तीन तेजो लेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या शुभ हैं। यह जो जीवों में लेश्याओं का तारतम्य है, वह भी कर्म के कारण है।१५२ १२) भव्य - जिस मानव में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता हो, उसे भव्य कहते हैं। जिस मानव में यह योग्यता न हो वह अभव्य कहलाता है। अभव्य की अपेक्षा भव्य अधिक हैं अभव्य का प्रथम गुणस्थान है, शेष तेरह गुणस्थान भव्य जीवों के हैं, परंतु उनमें भी एकेन्द्रिय से लेकर चउरेंद्रिय तक के जीवों में मोक्षप्राप्ति की योग्यता नहीं होती है। पंचेन्द्रिय जीवों में भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव हैं। इस प्रकार भव्य अभव्य को लेकर कर्मकृत विभिन्नता पाई जाती है कभी कभी कर्म का निबिड उदय रहता है इस कारण जीव की भव्यता दब जाती है कभी-कभी कर्मों के क्षयोपशम से जीव का भव्यत्व निखरता है।१५३ १३) सम्यक्त्व - सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भी कर्मकृत विभिन्नता पाई जाती है। सम्यक्त्व के कई भेद हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक आदि तथा मिथ्यात्व के भी