SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 109 निष्कर्ष यह है कि तात्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह जगत् एक रंगमंच के समान प्रतीत होगा। यहाँ जीव (आत्माएँ) विविध चित्र विचित्र वेष धारण करके नाटक खेलते हैं, अपना अभिनय दिखाते हैं, तथा अपना अपना पार्ट अदा करते हैं। अपना अपना खेल दिखाने के पश्चात् वे वेष बदलते हैं। 'जो कुछ खेला जा रहा है, वह हमारे सामने है परंतु प्रत्यक्ष नहीं है कुछ पर्दे के पीछे है। सामने जो कुछ हो रहा है वह भी चित्र-विचित्र है। पर्दे के पीछे पृष्ठभूमि में जो अभिनय हो रहा है वह भी बड़ा विचित्र है।' _ 'कर्म एक ऐसा अभिनेता है, जो पर्दे के पीछे निरंतर अभिनय कर रहा है। सोते-जागते, दिन-रात में वह निरंतर क्रियाशील रहता है।१७२ कर्मवाद१७३ में भी इसी बात का उल्लेख है। यही कारण है कि बार-बार वेष परिवर्तन और अभिनय परिवर्तन कर्म विपाक के अनुसार हुआ करता है। प्राय: सभी आस्तिक दर्शन और विशेषत: जैनदर्शन इस तथ्य से सहमत है। प्रसिद्ध पाश्चात्य नाटककार शेक्सपियर ने भी अपने नाटक "ऐज यु लाईक इट' में इसी तथ्य का समर्थन किया है। १७४ इस प्रकार विश्व के प्राणियों (जीवों) का वैचित्र्य कर्मकृत सिद्ध होता है। कर्म अस्तित्व कब से कब तक? संसार में जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, उन्होंने एक या दूसरे प्रकार से कर्म का अस्तित्व स्वीकार किया है। आस्तिक दार्शनिकों ने अध्यात्म के क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण शोध किये हैं। एक आत्मा की और दूसरी कर्म की । आत्मा और कर्म, इन दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों ने महान सत्य का उद्घाटन किया है। अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत बडी क्रान्ति की है, ये दो तत्त्व ही अध्यात्म के मौलिक आधार स्तंभ हैं। केवल आत्मा के अस्तित्व को मान लेने मात्र से अध्यात्म का प्रासाद स्थिर नहीं रह सकता। कर्म को उसके साथ द्वितीय आधार स्तंभ माने बिना अध्यात्म प्रासाद डगमगा जाएगा क्योंकि अध्यात्म की समग्र परिकल्पना, लक्ष्य प्राप्ति और पूर्णता की योजना एवं तत्त्व व्यवस्था है। आत्मा (जीव) को कर्म से सर्वथा मुक्त करना, यदि आत्मा का ही अस्तित्व न हो तो किसको मुक्त किया जायेगा? और यदि कर्म का अस्तित्व ही न हो तो किससे मुक्त किया जायेगा? अत: इन दोनों के अस्तित्व को माने बिना अध्यात्म अपूर्ण ही रहेगा। . बद्ध आत्मा और मुक्त आत्मा इन दोनों प्रकार की आत्माओं के बीच कर्म का एक सूत्र है, जो मुक्त आत्मा तक पहुँचने में अनेक उपाधियों से युक्त बना देता है। बद्ध आत्माएँ कर्म संयुक्त हैं, जब कि मुक्त आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त है। दोनों में अंतर डालने वाला 'कर्म है। जब तक आत्मा बद्ध है, संसारी है तब तक कर्मों की परिक्रमा लगती रहेगी।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy