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________________ तथा जीवों की विभिन्नताओं का कारण कर्म को ही माना गया है । १३४ ऐसी ही बात ब्रह्मसूत्र१३५ (शांकरभाष्य) में बताई गई है। 103 अभिधर्मकोष में भी लिखा है 'कर्मजंलोकवैचित्रम्' अर्थात् लोक विचित्रताका कारण कर्म । संसार का विश्लेषण करने में यत्रतत्र सर्वत्र विभिन्नता, विचित्रता और विषमता -गोचर होती है। निश्चयदृष्टि से सभी जीव स्वभाव और स्वरूप की अपेक्षा से समान हैं। जैसे सर्व कर्म मुक्त सिद्ध परमात्मा स्वरूप है । वैसा ही निकृष्टतम निगोद के जीव का स्वरूप है, उसमें निश्चयदृष्टि से कोई भेद या अंतर नहीं है फिर क्या कारण है कि एक जीव तो जन्म मरणादि के महादुःख से समस्त सांसारिक सुख - दुःख से सर्वथा रहित है और दूसरा कषायादि विकारों से लिपटा हुआ है । सांसारिक सुख-दुःख से ग्रस्त है, इष्ट वियोग- अनिष्ट संयोग अथवा इष्ट संयोग और अनिष्ट वियोग में संवेदनशील बनकर राग-द्वेष के आसक्ति वियोग में संवेदनशील बनकर राग-द्वेष के आसक्ति और घृणा के या मोह और द्रोह के झूले झूल रहा है ? बृहदालोयणा में सुश्रावक रणजीत सिंहजी ने इस अंतर का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है - सिद्धा जैसा जीव है, जीव सो ही सिद्ध होय । कर्म का आन्तरा, बुझे बिरला होय ॥ वस्तुतः सिद्ध जीव और संसारी जीव के स्वभाव (आत्मभाव) आत्मगुण एवं स्वरूप में निश्चय दृष्टि से सदृशता होने पर भी व्यवहार में जो इतना गहन अंतर है वह कर्मों के कारण सिद्धों की आत्मा परम विशुद्ध और समस्त कर्मों से रहित है, जबकि संसारी जीवों की आत्माएँ कर्ममल से लिप्त हैं इन दोनों में अंतर का कारण कर्म के सिवाय और कोई नहीं है । जैन दर्शन का यह सिद्धांत है कि स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ एक समान हैं।१३६ इस प्रकार संसारी आत्मा में कषायादि विजातीय तत्त्व की जो कमी मिली हुई है वही शुद्ध • और संसारी आत्माओं में भेद कराती है । यह कषायादि की मलिनता कर्म के कारण है। निष्कर्ष यह है कि कर्म नामक विजातीय पदार्थ ही ऐसा है जो आत्मा की शुद्ध स्थिति को भंग करके उनमें भेद डालता है तथा विभिन्नता, विसदृशता और विरूपता पैदा करता है। कर्मों के कारण जीवों को कैसी कैसी उपाधियाँ विषमताएँ प्राप्त होती हैं, जैन कर्म मर्मज्ञों ने १४ द्वार बताये हैं ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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