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गति, इन्द्रिय और काया को लेकर कर्म कारण विषमताएँ १) गति - हम देखते हैं कि सांसारिक जीवों में मनुष्य, देव, नारक, तिर्यंच आदि अनेक प्रकार की विषमता एवं विविधता प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होती है इसका भी कोई न कोई कारण होना चाहिए। एक जीव नरक में पडा विविध यातनाएँ भोग रहा है, एक जीव देवगति में विविध वैषयिक सुखों का उपभोग कर रहा है, एक मनुष्य गति में सुख और दुःख, उन्नति
और अवनति, प्रेय और श्रेय के हिंडोले में झूल रहा है, और एक जीव तिर्यंच गति में१३७ उत्पन्न होकर परवशता और पराधीनता के कारण नाना दुःख भोग रहा है। इस प्रकार जीवों की इस गति को लेकर जो विभिन्नता है। जैन दार्शनिकों ने उन उन जीवों के द्वारा भिन्न प्रकार से बाँधे हुए कर्मों को ही इसका कारण माना है। २) इन्द्रिय - सांसारिक जीवों में इन्द्रियों की विभिन्नता है। कोई जीवों को एक इन्द्रिय (स्पर्श) होती है, तो कई जीव दो इन्द्रियवाले हैं, कोई जीव तीन इन्द्रियवाले होते हैं, कोई चार इन्द्रियवाले और कोई पाँच इन्द्रिय वाले हैं। जीवों को इन्द्रियों की प्राप्ति का यह अंतर भी कर्म के अस्तित्व को स्पष्ट कर रहा है। इसके उपरांत अंगोपांग से विकलांग है। इन इन्द्रियों की विरूपता का कारण भी कर्म के सिवाय और कुछ भी नहीं है। ३) काया - इसी प्रकार काया में भी कितना अंतर है।१३८ कुछ जीव त्रस (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव) हैं, जब कि दूसरे स्थावरकाय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकायिक है) फिर षट्काय जीवों में भी अनंत प्रकार हैं। उसका कारण भी कर्म के सिवाय और कोई नहीं हो सकता। मन वचन काया के योग को लेकर जीवों में विभिन्नता का कारण : कर्म ४) योग- जैनाचार्यों ने योग की परिभाषा बताते हुए कहा है कि मन, वचन, काया का व्यापार या प्रवृत्ति और दूसरी परिभाषा है, कि - पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काया से युक्त जीव की कर्मों को ग्रहण करने में कारण भूत शक्ति को भी योग कहते हैं। १३९ कर्मग्रंथ१४० में भी यही बात समस्त प्रकार के सांसारिक जीवों के मन, वचन, काया के योगों को लेकर भी विभिन्नताएँ दृष्टि गोचर होती हैं। यह विभिन्नता भी कर्मजन्य है। क) मनोयोग - मनोयोग की अपेक्षा से कोई प्राणी मननशील है, मनस्वी है, विचारशील है तो कोई कोई मनन चिंतन ही नहीं कर पाता। कोई विवेकी और तार्किक है तो कोई विचारमूढ है। कोई मंदबुद्धि और मूर्ख है तो कोई प्रखर बुद्धि प्राज्ञ, विद्वान और सुशिक्षित है। मन की प्रवृत्ति योग के ये असंख्य प्रकार कर्म के कारण ही संभव हैं।