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________________ 102 सूक्ष्म शरीर के फोटो से कर्म के अस्तित्व का समाधान सूक्ष्म शरीर के फोटो लेने की सफलता ने युक्ति, अनुमान और आगम प्रमाण की परोक्ष जगत् की सीमा को बहुत पीछे छोड़ दिया। अब तो प्रेतविद्या विशारदों, परामनोवैज्ञानिकों एवं सूक्ष्म शरीर चित्रांकन कलाकारों ने प्रत्यक्ष जगत् की सीमा में पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, आत्मा और कर्म के अस्तित्व का प्रत्यक्षवत् समाधान कर दिया है। सूक्ष्म शरीर के फोटो लेने में सफलता के कारण पुनर्जन्म और कर्म का अविनाभाव संबंध मानने में किसी को कोई हिचक (दिक्कत) नहीं होनी चाहिए। पुनर्जन्म सिद्धांत की उपयोगिता पुनर्जन्म के सिद्धांत की उपयोगिता और अनिवार्यता तथा जन्म जन्मांतर से चले आने वाले कर्मप्रवाह को तथा कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की आवश्यकता है। इस सिद्धांत को अच्छी तरह से समझने तथा हृदयंगम करने पर जीवन की दिशा निर्धारित करने और मोडने में सफलता मिल सकती है। अपनी आंतरिक दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही भूल से चुभे काँटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और धावों को भरना चाहिए। . अपने जीवन में तप, त्याग, संयम तथा क्षमादि दस धर्मों को अपनी अमूल्य उपलब्धि मानकर उन्हें सुरक्षित ही नहीं परिवर्तित करने का अभ्यास सतत् जारी रखना चाहिए। साधना के पथ पर बढते रहने से उसका सुपरिणाम इस जन्म में तो मिलेगा ही साथसाथ अगले जन्म में भी निश्चित मिलता है। श्रेष्ठता की दिशा में उठाया गया कदम कभी निराशोत्पादक नहीं होगा। इस प्रकार पुनर्जन्म सिद्धांत की दार्शनिक पृष्ठभूमि को नैतिक, आध्यात्मिक प्रेरणा मिलती है। कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण जगत वैचित्र्य जैन संस्कृति का उज्ज्वल धवल प्रासाद लाखों करोडों वर्षों से कर्म-विज्ञान की सुदृढ भित्ति पर खडा है। जैन संस्कृति की प्रेरक प्रवृत्तियों उसके मौलिक भावों एवं उनके अंतस्तल को हृदयंगम करने के लिए कर्मविज्ञान को समझना परम आवश्यक है। जगत् का वैचित्र्य : कर्मों का अस्तित्व कर्म के अस्तित्व का सर्वाधिक प्रबल प्रमाण है जगत् का वैचित्र्य अर्थात् जगत् के प्राणियों की विविधरूपता, उनके सुख-दुःख की विभिन्नता, उनकी आकृति, प्रकृति-संस्कृति में पृथकता उनके विकारों व संस्कारों का चयापचय, उनके विभाव, स्वभाव, प्रभाव की दूरता, निकटता और एक ही जाति के प्राणियों में असंख्य आकार प्रकार कर्म के अस्तित्व को स्पष्ट घोषित करते हैं। अभिधर्मकोष, ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में भी इस लोक की विचित्रता
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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