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100 जैन दर्शन की दृष्टि से प्रेतात्मा का लक्षण एवं स्वरूप
जैन दर्शन के अनुसार भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस आदि व्यंतर जाति के देव माने जाते हैं। मनुष्य के रूप में रहते हुए इनका किसी स्थान विशेष से प्रबल मोह, ममत्व, आसक्ति, मूर्छा, लालसा, आकांक्षा अथवा प्रबल ईर्षा, घृणा, द्वेष, वैर-विरोध आदि होते हैं। ऐसे व्यक्ति व्यंतर जाति के देवों में से भूत, प्रेत, पितर, यक्ष, राक्षस, आदि किसी भी योनि में अपने पूर्वकृत कर्मानुसार मरकर जन्म लेते हैं। जन्म लेने के पश्चात् भी पूर्वोक्त जीव अपनी अतृप्त आकांक्षा के कारण वस्तु, व्यक्ति या स्थान विशेष के आसपास चक्कर लगाते रहते हैं या वही अड्डा जमाकर बैठते हैं। ये वैक्रिय शरीरधारी होने से मनचाहा रूप बना सकते हैं, अथवा वे अदृश्य रहकर अपनी इच्छापूर्ति के लिए किसी दूसरे के माध्यम से बोलकर अथवा दूसरे के शरीर में प्रवेश करके अपनी उपस्थिति और इच्छा व्यक्त करते रहते हैं। कुछ लोगों के अकालमृत्यु प्राप्त पारिवारिक जन पितर बन जाते हैं। या प्रेत योनि में जन्म लेते हैं। ऐसे पितर या प्रेत दो प्रकार के होते हैं। जिनके प्रति श्रद्धा या प्रतीति हो अथवा मन में आदरभाव होता है, या जिनके साथ पूर्वजन्म में मित्रता, अनुराग, या प्रीति होती है ऐसे पितर तो हितैषी एवं सहायक होते हैं, दूसरे ऐसे पितर होते हैं, जिन्हें पारिवारिक जनों या अमुक परिवार या व्यक्ति से कष्ट पहुँचा है, अथवा उनकी अवज्ञा, अनादर या उपेक्षा हुई है, उनसे बदला लेते हैं, उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनके कार्यों में विघ्न डालते हैं, उनको हानि पहुंचाते हैं। कई लोगों को प्रेतात्मा या मृतात्मा प्रत्यक्ष भी दिखाई देते हैं और कई अदृश्य रहकर किसी दूसरे के मुँह से बोलते हैं। १२७ तत्त्वार्थसूत्र १२८ में भी यही बात है।
जोसम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र के पूर्णत: या अंशत: आराधक होते हैं, वे मरकर उच्चगति में सम्यक्दृष्टि देव बनते हैं, या फिर अच्छी भावना वाले भवनपति या व्यंतर जाति के सम्यक्दृष्टि देव बनते हैं। वे धर्मनिष्ठ लोगों की सहायता करते हैं उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर वे उन धर्मात्माओं के चरणों में नतमस्तक होते हैं। ऐसे देवों के बारे में किसी को प्रतिबोध देने, धर्मकार्य में सहायक होने आदि के रूप में मर्त्यलोक में आने के कई शास्त्रीय ऐतिहासिक एवं आधुनिक प्रमाण भी मिलते हैं। १२९ उपासकदशांग में१३० भी यही बात है।
प्रेतात्मा (यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत आदि) बनकर पूर्वजन्म में स्वयं को दुःखी करने वाले से उक्त वैर का प्रतिशोध लेने की घटनाएँ विविध जैन कथाओं में आती हैं। द्वारिका नगरी के यादवकुमारों द्वारा द्वैपायन ऋषि को छेडने, उन्हें पत्थर मारकर निष्प्राण करने से अगले जन्म में अग्निकुमार (भवनपति) देव बनकर द्वारिका नगरी को भस्म करने के रूप में वैर का बदला लेने की घटना प्रसिद्ध है।१३१ __ये सभी घटनाएँ आत्मा और कर्म के अस्तित्व तथा पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की सत्ता को सिद्ध करती हैं।